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VAT SAVITRI FAST~वट सावित्री व्रत

Vat Savitri Vrat, or Vat Savithri Purnima, is a fast observed by married Hindu women in North India for the wellbeing of their husbands and children. The fasting is based on the devotion and determination shown by Savitri to win back her husband Satyavan from the clutches of yama (god of death). 

The legend is mentioned in the Mahabharata. The prayer and pujas associated with Vat Savitri is observed at the community level or individually at home. Vat Savitri Vrat Fasting is for three days and it begins on the trayodashi day and ends on Amavasi or Purnima. 

Some sections of Hindu society observe the vrat during Amavasi (new moon) and others during Purnima (full moon) in the Hindu month of Jyeshtha (June – July).

The fast is observed for three nights and is completed on the fourth day. The number of days the fast is observed depends on the person who is observing it. Now a days, many women only observe the fasting on the important day of Purnima.

There are no rigid rules regarding any Hindu fast. Pregnant women, those women having any ailments or diseases and those who have just delivered a baby usually skip this fasting and they just concentrate on prayers. Working women also avoid the fasting.

On the Trayodashi day, after morning activities, women apply paste of amala (Indian gooseberry) and gingli (sesamum) and take bath.

After this women eat the roots of Vata Vriksha (Banyan Tree) and drink water. In fact, for three days many women only eat just this.

Women then worship the Banyan Tree (Vat Vriksha). After praying to the Banyan Tree, a red or yellow colored thread is tied around the tree. Then water, rice and flowers are offered as part of the puja. Women then go round the tree and chant prayers.

Vat Vraksha or Banyan tree symbolically represents the Trimurtis – Brahma, Vishnu and Shiva. The root is Brahma, the stem is Vishnu and the upper portion is Shiva. The whole tree is also symbolically taken as Savitri.

At home, a painting of banyan tree is made on a plate or wood using sandalwood paste or turmeric. Pujas are done to the painting of banyan tree for three days. Special dishes are also prepared during the occasion.

The routine is followed on the Trayodashi, Chatrudashi and Amavasi or Purnima.

The fast is completed on the fourth day after offering water to moon and prayers to Savitri. Apart from this all fasting women take the blessings of elders and other married women. Special dishes are prepared on the day and distributed among friends and relatives after the pujas.

Many people also distribute food, clothes and money to the poor during Vat Savitri Vrat. Finally, never torture one’s body in the name of customs and traditions. Fasting is good for health and it also helps in spiritual quest. But one should not attempt it, if one is not capable of doing it. Prayers, kindness to all living beings and simplicity are also Vratas and one can observe it on all days.

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वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।

तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है : सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना। कई व्रत विशेषज्ञ यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक करने में विश्वास रखते हैं। इसी तरह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है। भगवान् विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा हितकर मानते हैं।

वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार- 'वट मूले तोपवासा' ऐसा कहा गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूप में विकसित हो गई हो।

वट सावित्री व्रत पूजा विधि -  

इस दिन सत्यवान सावित्री की यमराज सहित पूजा की जाती है। यह व्रत करने वाली स्त्रियों का सुहाग अचल होता है।  सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से भी जीत लिया था। सुवर्ण या मिटटी से सावित्री-सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बनाकर धुप, चन्दन, फल, रोली, केसर से पूजन करना चाहिए तथा सवित्री सत्यवान की कथा सुनानी चाहिए।  

वट सावित्री व्रत कथा - 

भद्र देश के राजा द्युमत्सेन के यहाँ पुत्री रूप में सर्वगुण सम्पन्न सवित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें पतिरूप में वरण कर लिया। इधर यह बात जब नारद जी को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे - आपकी कन्या ने वर खोजने में निसंदेह भारी भूल की है। सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा भी है पर वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।  

नारद जी की यह बात सुनते ही राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया। 'वृथा ह होहि देव ऋषि बानी' ऐसा विचार करके उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह उचित नहीं। इसलिए कोई अन्य वर चुन लो।  इस पर सावित्री बोली - पिताजी आर्य कन्यायें अपना पति एक ही बार वरण करती हैं, राजा एक बार ही आज्ञा देता है, पंडित एक ही बार प्रतिज्ञा करते हैं तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। 

अब चाहे जो हो मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार करूंगी। सावित्री ने नारद से सत्यवान की मृत्यु का समय पता कर लिया था। अन्ततोगत्वा उन दोनों को पाणिग्रहण संस्कार में बांधा गया। वह ससुराल पहुँचते ही सास-ससुर की सेवा में रत रहने लगी। समय बदला, ससुर का बल क्षीण होता देख शत्रुओ ने राज्य छीन लिया। 

नारद का वचन सावित्री को दिन - प्रतिदिन अधीर करता रहा। उसने जब जाना की पति की मृत्यु का दिन नजदीक आ गया है, तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरू कर दिया। नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया।  नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकड़ी काटने के लिए जब चला तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से चलने को तैयार हो गयी।  

सत्यवान वन मन पहुंचकर लकड़ी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और वृक्ष के ऊपर से नीचे उतर आया। सावित्री अपना भविष्य समझ गयी तथा अपने जंघे पर सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यंत प्रभावशाली महिषारूढ़ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीव को जब लेकर चल दिए तो सावित्री उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे देवी विधान सुनाया, परन्तु उसकी निष्ठा देखकर वर मांगने को कहा -
 
सावित्री बोली - मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे हैं, उन्हें आप दिव्या ज्योति प्रदान करें।  

यमराज ने कहा- ऐसा ही होगा, अब लौट जाओ। यमराज  की बात सुनकर उसने कहा- भगवान्! मुझे अपने पतिदेव के पीछे -पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं, पति अनुगमन मेरा कृतव्य है। यह सुनकर यमराज ने फिर से वर मांगने को कहा। 

सावित्री बोली - हमारे ससुर का राज्य छिन गया है उसे वे पुनः प्राप्त कर लें तथा धर्मपरायण हो। यमराज ने यह वर भी देकर लौट जाने को कहा, परन्तु उसने पीछा न छोड़ा। अंत में यमराज को सत्यवान का प्राण छोड़ना पडा तथा सौभाग्यवती को सौ पुत्र होने का वरदान देना पड़ा। 

सावित्री को यह वरदान देकर धर्मराज अन्तर्धान हो गए। इस प्रकार सावित्री उस वट वृक्ष के नीचे आई जहां पति का मृत शरीर पड़ा था। ईश्वर की अनुकम्पा से उसके पति में जीवन संचार हुआ तथा सत्यवान उठकर बैठ गए। दोनों हर्ष से प्रेमालिंगन करके राजधानी को ओर गए। उन्होंने माता-पिता को भी दिव्य ज्योति वाला पाया।

इस प्रकार सावित्री सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे। 
 
 
 
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