भगवान शिव या महेश, त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में से एक हैं। महेश जयंती, या महेश नवमी, भगवान शिव को समर्पित है। व्यापारिक समुदाय महेश्वर वासी उस दिन महेश( शिव ) और उनकी पत्नी पार्वती की पूजा करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ज्येष्ठ (मई-जून) के शुक्ल पक्ष के नौवें दिन माहेश्वरी समुदाय का गठन हुआ था और तब से यह पर्व प्रति वर्ष महेश नवमी के रूप में मनाया जाता है।
महेश नवमी का महत्व
माहेश्वरी समाज के लिए महेश नवमी का बहुत महत्व है। इसका पता इस बात से चलता है कि इस उत्सव की साजो सजावट क़रीब तीन दिन पहले ही शुरू हो जाती है, जिनमें धार्मिक, सांस्कृतिक समारोह का आयोजन जोश और उत्साह के साथ होता है। 'जय महेश' के नारो की ध्वनि के साथ समारोह का संचालन किया जाता हैं। महेश नवमी के दिन भगवान शिव और पार्वती की विशेष पूजा की जाती है। समस्त माहेश्वरी समाज इस दिन भगवान शिव और पार्वती के प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास प्रकट करते है। जगत् कल्याण के स्वामी भगवान शिव ने जिस तरह क्षत्रिय राजपूतों को शिकार त्यागकर, व्यापार या वैश्य कर्म अपनाने की आज्ञा दी अर्थात हिंसा का मार्ग छोड़कर अहिंसा का मार्ग अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। इससे महेश नवमी का यह पर्व यही बात कहता है कि मानव को यथासंभव हर प्रकार की हिंसा का त्याग कर जगत् कल्याण, परोपकार और स्वार्थ से दूर रहकर अपना कर्म करना चाहिए।
महेश नवमी की कथा
महेश नवमी से जुड़ी एक पौराणिक लोककथा है जिसके अनुसार, खड्गसेन नामक एक राजा प्राचीन काल में शासन किया करता था। वह प्रजा सेवा और धर्म-कर्म के कार्यों में बहुत रुचि लेते थे, लेकिन उनकी संतान न होने के कारण वे प्राय बहुत दुखी रहा करते थे। पुत्र की कामना के साथ, राजा ने एक कामशक्ति यज्ञ किया और ऋषियों ने राजा को एक वीर और साहसी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया और उसे बीस वर्ष तक उत्तर दिशा में जाने से रोकने के लिए कहा। भगवान की अनुकंपा से राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम सुजान कंवर था। वह शस्त्रों में वीर, तेजस्वी और कुशल था। इन्ही सब के बीच, एक दिन राजकुमार शिकार करने के लिए वन में गए और सहसा उत्तर दिशा की ओर जाने लगे। सहयोगी दल के रोकने पर भी वे नहीं रुके। उत्तर दिशा में सूर्य कुंड के पास कुछ ऋषि मुनि यज्ञ कर रहे थे। राजकुमार ने सोचा कि उसे उत्तर दिशा में जाने की अनुमति इन्ही ऋषियों के कारण नहीं है और क्रोध में उसने यज्ञ में विघ्न डाल दिया। क्रोधित ऋषियों ने क्रोध में उसे श्राप दिया, और वह पत्थर की मूरत में बदल गया। यह समाचार मिलने पर राजा शोक से मर गए और उनकी रानियां विधवा हो गईं। इसके बाद, राजकुमार सुजान की पत्नी चंद्रवती सहयोगियों की पत्नियों के साथ ऋषियों के पास गई और क्षमा मांगने लगी। इस पर ऋषियों ने उनसे भगवान भोले नाथ और माता पार्वती की पूजा करने को कहा। इसके बाद, सभी ने सच्चे मन से भगवान महेश और माँ पार्वती की पूजा की और उनके कृपा से राजकुमार और उनके सहयोगियों को नया जीवनदान मिला। भगवान शंकर के कथन पर, इस समाज के पूर्वजों ने क्षत्रिय कर्म त्याग दिया और वैश्य धर्म को अपनाया।
मुक्त हुए शिकारियों और उनके परिजनों ने शिकार करना छोड़ दिया और व्यवसाय पर ध्यान केंद्रित किया और उन्होंने शिव के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को दिखाने के लिए भगवान महेश के बाद अपने समुदाय का नाम माहेश्वरी समुदाय रखा। इस तरह भगवान शिव इस समुदाय के पूर्वजों के तारणहार थे।
महेश नवमी के अनुष्ठान
महेश नवमी के शुभ दिन पर यह पवित्र उत्सव मनाया जाता है। सभी पूजास्थलों में विभिन्न यज्ञों या जप का आयोजन किया जाता है। पालकी में भगवान शिव की झाँकी व् अलार की तस्वीर घर-घर वितरित की जाती है। उनके नाम पर गाए जाने वाले प्रार्थना और गीत हवा में गूंजते हैं। पार्वती के साथ शिव का अभिषेक इस दिन भोर में किया जाता है।
जब झाँकी दर्शन की तस्वीर मंदिरों में वापस आती है, तो एक भजन संध्या का आयोजन होता है, जहाँ शिव-पार्वती के नाम पर मंदिरों में धार्मिक भजनो, गीतों आदि का प्रदर्शन किया जाता है और अंत में सभी को प्रसाद दिया जाता है। इस दिन व्रत या पर्व का कोई विशेष नियम नहीं है; बल्कि यह उन लोगों का समर्पण है जो भगवान् शिव की उपासना करते हैं। हालाँकि, जो महिलाएं बच्चे की कामना करती हैं, वे इस दिन विशेष प्रार्थना करती हैं, क्योंकि यह मान्यता है कि भगवान महेश उन्हें विशेष रूप से आशीर्वाद देते हैं ताकि वे एक बच्चे के साथ धन्य रह सके ।
मंदिरों के अलावा भी बहुत से लोग अपने घरों में प्रार्थना करते हैं ताकि इस शुभ दिन पर उन्हें उनका आशीर्वाद मिल सके।
Lord Shiva or Mahesh is one of the Trimurtis (Brahma, Vishnu and Mahesh). Mahesh Jayanti, or Mahesh Navami, is dedicated to Lord Shiva. The business community Maheshwar Vasi worships Mahesh (Shiva) and his wife Parvati on that day as it is believed that the Maheshwari community was formed on the ninth day of the Shukla Paksha of Jyeshtha (May-June) and since then the festival is held every year celebrated as Mahesh Navami.
Importance of Mahesh Navami
Mahesh Navami has great importance for Maheshwari society. It is known from this that the decoration of this festival starts about three days in advance, in which religious, cultural ceremonies are organized with zeal and enthusiasm. The ceremony is conducted with the sound of 'Jai Mahesh' narrows. Lord Shiva and Parvati are specially worshiped on Mahesh Navami. All Maheshwari society expresses total devotion and faith on this day to Lord Shiva and Parvati. Lord Shiva, the lord of Jagat Kalyan, encouraged Kshatriya Rajputs to abandon their prey, trade or perform Vaishya karma, that is, to leave the path of violence and take the path of non-violence. With this, festival of Mahesh Navami says that human beings should do whatever they can to abandon all forms of violence and do their deeds, away from world welfare, benevolence and selfishness.
Story of Mahesh Navami
There is a mythological folklore associated with Mahesh Navami, according to which a king named Khandsen ruled in ancient times. He used to take great interest in the work of praja seva and dharma-karma, but he was often very unhappy because of his absence. With the wish of the son, the king performed a Kamshakti Yajna and the sages blessed the king to be a brave and courageous son and told him to stop going north for twenty years. By the grace of God, the king received a son, named Sujan Kanwar. He was brave, brilliant and skilled in weapons. Amidst all this, one day the prince went into the forest to hunt and suddenly started going north. They did not stop even after the allies stopped. Near the Surya Kund in the north direction some sages were performing the sacrificial fire. The prince thought that he was not allowed to keep the north direction only in the dark and in anger he disturbed the yagna. The angry sages cursed him in anger, and he turned into a stone idol. On receiving this news, King Shok died and his queens were widowed. Subsequently, Rajkumar Sujan's wife Chandravati went to the sages along with the wives of the allies and started apologizing. On this the sages asked them to worship Lord Bhole Nath and Mother Parvati. After this, everyone sincerely worshiped Lord Mahesh and Maa Parvati and by their grace the prince and his associates got a new lease of life. On the statement of Lord Shankar, the ancestors of this society renounced Kshatriya karma and adopted the Vaishya religion.
The freed hunters and their families gave up hunting and concentrated on business and they named their community Maheshwari community after Lord Mahesh to show their love and devotion to Shiva. In this way Lord Shiva was the savior of the ancestors of the community.
Rituals of Mahesh Navami
This sacred festival is celebrated on the auspicious day of Mahesh Navami. Various yajnas or chanting are conducted in all the places of worship. In the palanquin, pictures of Lord Shiva's tableau and Alar are distributed from house to house. Prayers and songs sung in his name resonate in the air. Shiva's consecration with Parvati is performed at dawn on this day.
When the picture of the tableau darshan comes back to the temples, a bhajan sandhya is organized where religious hymns, songs etc. are performed in the temples in the name of Shiva-Parvati and the prasad is finally offered to all. There is no special rule of fast or festival on this day; Rather it is the dedication of those who worship Lord Shiva. However, women who wish for a child offer special prayers on this day, as it is believed that Lord Mahesh specially blesses them so that they can be blessed with a child.
Apart from temples, many people pray in their homes to get their blessings on this auspicious day.