एक मूर्तिकार पिता ने पुत्र को भी अपनी कला सिखायी , जीवन यापन के लिये दोनों हाट में जाकर अपने द्वारा बनायी मूर्तियां बेचते थे .. पिता को मूर्तियों के बदले 50-60 रुपये मिल जाते थे वहीं पुत्र को मात्र 10-20 रुपये ही । पिता हर हाट के बाद पुत्र
को सुधार के लिये प्रेरित करता और क्या त्रुटियां उसे दूर करनी है उनका विश्लेषण करता । यही क्रम चलता रहा अब हाट में पिता की मूर्तिया में 50-60 तक और पुत्र की 100-120 तक बिकने लगीं । सुधारने का क्रम पिता ने तब भी बंद नही किया .. पुत्र ने एक दिन झुंझलाकर कहा - पिताजी अब तो दोष निकालना बंद कर दीजिये , अब मेरी मूर्तियां आपसे दुगने दामों पर बिकती हैं । पिता मुस्कुराया और बोला - बेटा सही कह रहे हो ..पर एक बात तुम जानते हो जब मैं तुम्हारी आयु का था तब मुझे भी प्रारंभ में बहुत कम दाम मिलते थे तब मेरे पिता भी मेरे दोषों को सुधारने के लिये बताते थे पर जब मुझ उनसे अधिक दाम मिलने लगा तब मैने उनकी बातें अनसुनी कर दी और मेरी आमदनी 50-60 पर ही रुक गयी .. मैं चाहता हूं कि तुम वह भूल न करो , अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदैव जारी रखो ताकि बहुमूल्य मूर्तियां बनाने वाले कलाकारों की श्रेणीं मे पहुंच जाओ । ...
. " सफलता के चाहे जितने ही ऊंचे शिखर पर पहुंच जाये पर माता , पिता , गुरु , वरिष् जनों की सीखों का निरादर कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि उनका ध्येय हमें शीर्ष पर पहुंचाना होता है न कि हमारा पतन । "