पुराने जमाने में एक राजा जंगल से गुजर रहा था, मार्ग में उसे अत्यन्त धीमी गति से रेंगता एक सांप दिखा । राजा ने यह सोचते हुए कि कहीं ये मेरे रथ से कुचलकर मर न जावे अपना रथ रुकवाकर अपने भाले से यथासंभव सुरक्षित तरीके से उस सांप को उठाकर वृक्ष की ओर उछाल दिया और आगे निकल गया । उस राजा को यह नहीं मालूम पडा कि वह सांप उसके उछाले गये वेग से किसी ऐसी कंटीली झाडी में जाकर फंस गया जहाँ से वह स्वयं के बूते बाहर नहीं निकल पाया और कई दिनों तक उस झाडी में ही लुहूलुहान अवस्था में फंसा रहकर भूखा-प्यासा तडप-तडपकर दर्दनाक तरीके से मृत्यु के मुख में समा गया ।
अगले जन्म में उसी राजा ने भीष्म के रुप में जन्म लिया और पूर्ण न्यायप्रिय और निष्पक्ष जीवन जीने के कारण भीष्म पितामह की पदवी प्राप्त की । किन्तु महाभारत के युद्ध में उन्हीं भीष्म पितामह को बाणों की ऐसी सेज मिली जिसमें तत्काल उनके प्राण भी नहीं निकले और कई दिनों तक बाणों की सेज पर पडे रहने के बाद उसी कंटीली चुभन को भोगते-भोगते मृत्यु के मुख में समाना पडा ।
शास्त्रोक्त मान्यता यह है कि उस सेज-शय्या पर पडे-पडे उनका ईश्वर से भी साक्षात्कार हुआ और जब उन्होंने ईश्वर से यह पूछा कि भगवन मैंने तो अपने जीवन में कोई गलत कार्य नहीं किया, न ही किसी गलत कार्य को होता देखकर अपनी ओर से उसे कोई समर्थन दिया फिर मेरा अंत इस प्रकार क्यों हो रहा है ? तब ईश्वर ने उसे याद दिलाया कि पूर्व-जन्म में अपने रथ-मार्ग में आने वाले एक सांप का जीवन बचाने की चाह में आपने उसे अपने भाले से उछालकर झाडियों की ओर फेंका था जहाँ कंटीली झाडियों में फंसकर उस सांप की ऐसी ही मृत्यु हुई थी और ये उसीका परिणाम है जो इस रुप में आपको भोगना पड रहा है ।
तो कथासार यही है कि जब भी हम कोई भला कार्य़ कर रहे हों तो वहाँ भी यह ध्यान अवश्य रखने का प्रयास करें कि नेपथ्य में इसके कारण कुछ ऐसे गलत को तो मेरे द्वारा समर्थन नहीं पहुँच रहा है जो नहीं पहुंचना चाहिये ।