यह प्राचीन काल के दो ऋषियों से सम्बंधित वृतांत है। उस प्राचीन युग में शौनक कापी और अभिद्रतारी दो ऋषि थे, दोनों एक ही आश्रम में रहते हुए ब्रह्मचारियों को शिक्षा-दीक्षा दिया करते थे।
दोनों ऋषियों के आराध्य देव वायु देवता थे। वे उन्ही की उपासना करते थे।
एक बार दोनों ऋषि दोपहर का भोजन करने बैठे। तभी! एक भिक्षुक अपने हाथ में भिक्षा पात्र लिए उनके पास आया और बोला - हे ऋषिवर! मैं कई दिनों से भूखा हूँ। कृपा करके मुझे भी भोजन दे दीजिए।
भिखारी की बात सुन कर दोनों ऋषियों ने उसे घूरकर देखा और बोले - हमारे पास यहीं भोजन है, यदि हम अपने भोजन में से तुझे भी भोजन दे देंगें तो हमारा पेट कैसे भरेगा। ... चल भाग यहाँ से .....।
उनकी ऐसी बातें सुनकर उस भिखारी ने कहा - हे ऋषिवर! आप लोग तो ज्ञानी हैं, और ज्ञानी होकर भी ये कैसी बातें करते हैं? क्या आप जानते नहीं की दान श्रेष्ठ कर्म, भूखे को भोजन करना, प्यासे को पानी देना महान पुण्य का कर्म है। इन कर्मों को करने से मनुष्य महान बन जाता है, यह शास्त्रों का कथन है। इसलिए कृपा करके मुझ भूखे को भी कुछ खाने को दीजिए, और पुण्य कमाइए।
ऋषियों ने उसे विस्मित नजरों से देखते हुए सोचा - बड़ा ही विचित्र व्यक्ति है। हमारे मना करने पर भी भोजन मांग रहा है।
दोनों ऋषि उसे कुछ पलों तक घूरते रहे, फिर स्पष्ट शब्दों में बोले - हम तुझे अन्न का एक दाना भी नहीं देंगे। फिर भी वह भिखारी वहां से नहीं हिला और बोला - किन्तु मेरे प्रश्नों का उत्तर देने में तो आपकों कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
हाँ-हाँ पूछो-पूछो ! दोनों ऋषियों ने सम्मिलित स्वर में उत्तर दिया। तब उसने पूछा - आपके आराध्य देव कौन है?
ऋषियों ने उत्तर दिया - वायु देवता हमारे आराध्य देव हैं। वहीँ वायु देवता जिन्हें प्राण तथा श्वास भी कहते हैं।
तब भिखारी ने कहा तब तो तुम्हे यह भी ज्ञात होगा की वायु सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, क्योंकि वही प्राण है।
हम जानते हैं, दोनों ऋषियों ने एक स्वर में कहा।
फिर भिखारी ने पूछा, अच्छा ये बताओ के तुम भोजन करने से पूर्व भोजन किस देवता को अर्पण करते हो ?
बड़े अटपटे से भाव में ऋषियों ने कहा यह भी कोई पूछने की बात है - हम भोजन वायु देवता को अर्पित करते हैं, और हमने अब भी किया है। क्योंकि वायु ही प्राण हैं, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।
भिखारी ने लंबी गहरी श्वास ली, और शांत भाव से बोला - यहीं मैं तुम्हारे मुहं से सुनाने को उत्सुक था। जब तुम प्राण को भोजन अर्पित करते हो और प्राण पूरे विश्व में समाये हैं तो क्या मैं उस ब्रह्माण्ड (विश्व) से अलग हूँ। क्या मुझमें भी वहीँ प्राण नहीं हैं?
हमें पता है,- ऋषियों ने झल्लाकर कहा।
इस पर भिखारी बोला - जब तुम्हे मालूम है, तो मुझे भोजन क्यों नहीं देते? संसार को पालने वाला ईश्वर ही है, वही सबका प्रलय रूप भी है। फिर भी तुम इश्वर की कृपा क्यों नहीं समझते ? लगता है, तुम सर्वशक्तिमान से अनभिज्ञ हो। यदि तुम्हें ज्ञात होता कि ईश्वर क्या है, तो मुझे भोजन को मना न करते ।
जब ईश्वर ने वायु रूप प्राण से भी जीवों की रचना की है, तब तुम आचार्य हो कर भी क्यों उसकी रचना में भेड़ कर रहे हो। जो प्राण तुममे समाये हैं, वहीँ प्राण मुझमें भी हैं। फिर तुम्हारी तरह मुझे भोजन क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्यों तुम मुझे भोजन से वंचित रखना चाहते हो?
एक भिखारी के द्वारा ऐसी ज्ञान भरी बातें सुनकर, दोनों ऋषि आश्चर्यचकित रह गए और विस्मित दृष्टि से उसे देखने लगे। वे समझ गए की यह कोई बहुत ही ज्ञानवान पुरुष हमने उपदेश देने आया है, वे बोले -
ये भद्र ! ऐसा नहीं है, कि हमने उस परमपिता परमेश्वर का ज्ञान नहीं है। हम जानते हैं, कि जिसने सृष्टि की रचना की है, वह ही प्रलयकाल में स्वरचित सृष्टि को लील भी जाता है। साथ ही हमने यह भी मालूम है कि स्थूल रूप से दृष्टिगोचर वस्तु, अंत में सूक्ष्म रूप से उसी परमात्मा में विलीन हो जाती है। किन्तु हे भद्र! उस परमपिता को हमारी तरह भूख नहीं लगती है, और न ही वो हमारी तरह भोजन करता है, जब उसे भूख लगती है, तब वह इस सृष्टि को ही भोजन रूप में ग्रहण कर लेता है। विद्वान मनुष्य उसी परमपिता की आराधना करते हैं।
इस संवाद के बाद ऋषियों ने भिखारी को अपने साथ बिठाया और भोजन कराया और बाद में उस भिखारी से शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया |
ईशा वास्यं इदं सर्वं यत् किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद् धनम्।।
(संसार में ऐसा तो कुछ है ही नहीं और ना ही कोई ऐसा है, जिसमें ईश्वर का निवास न हो। तुम त्यागपूर्वक भोग करो। अपने पास अतिरिक्त संचय न करो। लोभ में अंधे न बनो। पैसा किसी का हुआ नहीं है) इसलिए धन से परोपकार करों !!!!