करनगांवस्थित दशनामपंच जूना अखाडा से संबद्ध भंवराढकमठ का महाभारत काल का साक्षी है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने एक चर्तुभुजमूर्ति की स्थापना की थी। पीपल का वृक्ष भी लगाया था जो अजानबाहुके रूप में विकसित होकर विकराल रूप धारण कर चुका है। इस अद्भुत वृक्ष को देखकर लोगों का हतप्रभ हो जाते हैं।
बताया जाता है कि हिंदुओं की आस्था का प्रतीक इस मठ पर दूर-दराज के श्रद्धालुओं की भीड आयेदिन रहती है। अग्निवंशीचर्तुभुजमूर्ति की पूजा करते थे। इस चर्तुभुजमूर्ति को क्षत्रिय वंशज कुल देवी के रूप में मानते थे। राजा कर्ण सिंह के वंशज यहां आकर बसे थे और यहां पूजा करते रहे। इससे प्रसन्न होकर अग्निवंशीक्षत्रियों को कुल देवी ने वरदान दिया जिससे क्षत्रिय वंश की परंपरा आगे बढ सकी।
पुजारी देवदत्तपुरीकी माने तो वरदान से खुश होकर बहुवारियासत के जमींदार मठ को भीखमसिंह ने 51बीघे जमीन दान में दे दिया था। पीपल वृक्ष के बारे में बताया जाता है कि जड से लगभग एक मीटर की दूरी के मुख्य तना से उत्तर-दक्षिण की ओर दो-दो मीटर की देाशाखाएं निकली है जो सैकडों वर्ष से अपने स्थान पर सीमित है। इन बाहुओंमें से न तो पत्रिका निकलती है। और न ही यह आगे विकसित होता है, जबकि अन्य बराबर विस्तार कर रहा है। अखिलेश मिश्र, शिवाकांत अवस्थी, श्रीकृष्ण, रामकरन शुक्ल आदि दर्शनार्थियोंका कहना है कि पीपल के अद्भुत वृक्ष के नीचे पौराणिक स्थापित है, जिनमें चार दिशाओं में स्थित चार महंतों समेत 16अन्य महंतों की समाधियां स्थित है।