ब्रजमण्डलमें श्रीराधाकुण्डको सर्वोपरि माना जाता है। गौडीयवैष्णव साहित्य इस पावन कुण्ड की महिमा के गुणगान से भरा पडा है। वैष्णव संतों के लिए श्रीराधाकुण्डका क्षेत्र सदा से ही प्रेरणादायक भजन-स्थल रहा है। पद्मपुराणमें लिखा है-
यथा राधा प्रिया विष्णो:तस्याकुण्डंप्रियंतथा। सर्वगोपीषुसेवैकाविष्णोरत्यन्तवल्लभा॥
जिस प्रकार समस्त गोपियों में श्रीमती राधारानीभगवान श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय हैं, उनकी प्राणवल्लभाहैं, उसी प्रकार राधाजीके द्वारा निर्मित कुण्ड भी उन्हें अत्यन्त प्रिय है। श्रीराधाकुण्डगिरिराज गोवर्धनसे लगभग चार किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में स्थित है। इसके पास ही वह स्थान है जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अरिष्टासुरका वध किया था। उस गांव का नाम अडींगहै। कंस का अरिष्टासुरअनुचर बैल का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को मारना चाहता था लेकिन उन्होंने उस असुर का वध कर दिया। रात में जब श्रीकृष्ण रासलीला के लिए राधारानीऔर गोपियों के पास पहुंचे, तब उन सबने श्रीकृष्ण पर गोहत्या का अभियोग लगाया और उस पाप के प्रायश्चित में समस्त तीर्थो में स्नान करने को कहा। इस पर श्रीकृष्ण बोले- पहली बात तो यह है कि मैं ब्रज को छोडकर कहीं और जाना नहीं चाहता और दूसरी बात यह कि मेरे बाहर जाने पर तुम लोगों को यह विश्वास होगा भी नहीं कि मैंने सब तीर्थो में स्नान कर लिया। अत:मैं पृथ्वी के समस्त तीर्थो को यहीं बुलाकर तुम लोगों के सामने सर्वतीर्थ-स्नानकरूंगा। यह कहकर श्रीकृष्ण ने अपने बायें पैर की एडी की चोट से एक विशाल कुण्ड बनाकर उसमें तब तीर्थो का आवाहन किया। समस्त तीर्थो के जल से परिपूर्ण वह सरोवर श्यामकुण्ड के नाम से विख्यात हो गया। श्यामसुंदर ने उस कुण्ड में स्नान करके राधारानीऔर गोपियों से उसमें स्नान करने को कहा। यह सुनकर राधाजी बोलीं-गो-हत्या के पाप से लिप्त तुम्हारे कुण्ड में हम स्नान नहीं करेंगी। हम अपने लिए एक अलग कुण्ड बना सकती हैं। ऐसा कहकर सब सखियों के साथ श्रीराधाजी ने श्यामकुण्डके पश्चिम में एक अन्य कुण्ड हाथों में पहने कंकणोंसे खोदकर तैयार कर लिया, जो कंकण कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुण्ड खोद लेने के बाद राधाजीने अपनी सखियों को पास स्थित मानसी गंगा के जल को कलशों में भर कर लाने का आदेश दिया ताकि कुण्ड को जल से भरा जा सके। श्यामकुण्डमें उपस्थित सब तीर्थ भगवती राधा का आश्रय पाने के लिए बडे इच्छुक थे। योगेश्वर श्रीकृष्ण का संकेत पाकर समस्त तीर्थ श्रीश्यामकुण्डसे निकले और वे सब दिव्य रूप धारण करके सजल नयनोंसे राधारानीकी स्तुति करने लगे। राधाजीके द्वारा इसका कारण पूछने पर तीर्थगणबोले-हे करुणामयी सर्वेश्वरी!आप के कुण्ड में प्रवेश करके हम अपना तीर्थ नाम सफल करना चाहते हैं। तीर्थो के भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर श्रीमती राधारानीने उन्हें अपने कुण्ड में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान कर दी। तब समस्त तीर्थ श्रीश्यामकुण्डसे बीच की पृथ्वी का भाग तोडते श्रीराधारानीद्वारा निर्मित कुण्ड में प्रविष्ट हो गए। आह्लादितगोपियों के मुख से आहा वोहीशब्दोच्चारहुआ, जो अपभ्रंशहोकर ब्रज में अहोई बोला जाने लगा। यह सम्पूर्ण घटना चक्र कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी की मध्यरात्रि में घटा था अतएव कार्तिक-कृष्ण-अष्टमी अहोई अष्टमी के नाम से पुकारी जाने लगी। इस तिथि का एक अन्य नाम बहुलाष्टमी भी है।
श्रीराधाकुण्डके आविर्भाव की तिथि होने के कारण कार्तिक कृष्ण अष्टमी (अहोई अष्टमी) के दिन इस पावन सरोवर में स्नान करने की प्रथा बन गई है। लोगों की धारणा है कि कार्तिक कृष्ण अष्टमी के पर्वकाल में राधाकुण्डमें स्नान करने से नि:संतान दंपतीको संतान-सुख मिलता है तथा अन्य भक्तों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष उपलब्ध होता है। कुण्ड के निर्माण के समय स्वयं परमेश्वर श्रीकृष्ण ने अपनी प्रियतमा राधारानीसे कहा था- मेरे कुण्ड की अपेक्षा तुम्हारे कुण्ड की महिमा अधिक होगी। आदिवाराहपुराणमें श्रीराधाकुण्डके माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है-
अरिष्ट-राधाकुण्डाभ्यां स्नानात्फलमवाप्तये।
राजसूयाश्वेधाभ्यांनात्रकार्याविचारणा॥
इसमें कोई संशय नहीं है कि राजसूय अथवा अश्वमेध यज्ञ करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल अरिष्टकुण्ड(श्रीश्यामकुण्ड) और श्रीराधाकुण्डमें स्नान करने मात्र से प्राप्त होता है। द्वापर युग में श्रीराधा-कृष्णकी प्रकटलीलासे उत्पन्न श्रीराधाकुण्डऔर श्रीश्यामकुण्डकालान्तर में लुप्त हो गए। महर्षि शाण्डिल्य के निर्देशन में श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभने जब ब्रज की खोज की और अपने परदादा श्रीकृष्ण की लीला से संबंधित तीर्थ-स्थानों का पुनरुद्धार किया तब इन दोनों कुण्डों का भी उद्धार हुआ। इसके बाद हजारों साल बीत जाने पर ये दोनों कुण्ड पुन:विस्मृत हो गए। कालांतर में श्रीचैतन्यमहाप्रभुने अपनी ब्रज-यात्रा के समय धान के खेतों में छुपे इन दोनों कुण्डों को खोज निकाला। बाद में जगन्नाथपुरीसे आये श्रीरघुनाथदास गोस्वामी की देख-रेख में कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ और उनकी महिमा चारों तरफ फैल गयी।