उत्कल में समुद्र-तीर स्थित है, भगवान जगन्नाथ का विशाल मंदिर। मंदिर में सुशोभित हैं, जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), उनके बडे भाई बलराम और बहन सुभद्रा के काष्ठ-विग्रह। इस स्थान की जगन्नाथपुरीके नाम से ख्याति है। ब्रह्मपुराण,नारदपुराण,पद्मपुराणएवं स्कन्दपुराणमें इसकी महिमा वर्णित है। स्कन्द पुराण के अनुसार आश्विन, माघ, आषाढ और वैशाख मास में यदि यदा-कदा भी पुरी तीर्थ में मज्जन किया जाए, तो सभी तीर्थो का पूर्ण फल प्राप्त होने के साथ ही शिवलोक की प्राप्ति होती है-
ऊर्जेमाघतथाषाढेवैशाखेचविशेषत:।
यदाकदापुरींप्राप्य कर्तव्यतीर्थमज्जनम्॥
सर्वतीर्थफलंप्राप्य शिवलोकेमहीयते॥
ज्ञातव्य है कि आषाढ शुक्ल द्वितीया को ही रथ यात्रा आरंभ होती है। तीन विशाल रथों की इस यात्रा में सर्वप्रथम बलराम का रथ होता है, इसके पश्चात् सुभद्रा का रथ, जिस पर सुदर्शन चक्र भी विराजमान होता है। अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। इन रथों में मोटी-मोटी लम्बी रस्सियां लगी होती हैं और इनको खींचते हैं, देशभर से जुटे श्रद्धालुगण। इस रथयात्रा के पीछे एक प्राचीन कथा है। द्वारिकापुरीमें रहते समय सुभद्रा ने अपने दोनों भाइयों से नगर-दर्शन की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण और बलराम ने बहन को एक पृथक् रथ में बैठा कर उस रथ को मध्य में रख अपने रथों पर आसीन हो उन्हें सम्पूर्ण द्वारिकापुरीके दर्शन कराए। उसी की स्मृति में युगों से रथ यात्रा आयोजित होती है। श्रीजगन्नाथके रथ का नाम है नन्दीघोष,बलभद्र के रथ का कालध्वजऔर सुभद्रा का रथ देवदलनकी संज्ञा पाता है। जगन्नाथ अथवा श्रीकृष्ण को पीत वस्त्र प्रिय है। इनका एक नाम पीतवासभी है, इसीलिए जगन्नाथजीके रथ को सजाने में पीले वस्त्रों का प्रयोग होता है। बलभद्र नीलाम्बर हैं, अत:उनके रथ की सज्जा नीले वस्त्रों से होती है। सुभद्रा देवी-स्वरूपा हैं, अत:इनके रथ को सज्जित करने में कृष्ण रंग के वस्त्र प्रयुक्त होते हैं। रथयात्रा के आरंभ में पुरी का गजपति नृपरथों को साफ करता है। पूजा-अर्चना सम्पादित करता है। तीनों रथ संध्याकाल तक गुंडीचामंदिर के समीप पहुंचते हैं। दूसरे दिन प्रात:तीनों विग्रह रथ से उतार कर मंदिर में पहुंचाए जाते हैं। सात दिनों तक भगवान जगन्नाथ, बलराम और देवी सुभद्रा यहीं विराजते हैं। जगन्नाथ मंदिर के विधि-विधान के अनुरूप ही यहां इनकी पूजा सम्पादित होती है। यहां भी जगन्नाथ मंदिर की तरह ही श्रद्धालुओं को तीनों विग्रहोंके दर्शन प्राप्त होते हैं। सात दिनों की यात्रा पर आए उनके महत्व में पहले से अधिक वृद्धि हो जाती है, अत:यहां किए गए दर्शनों का भी विशेष फल होता है। सप्तदिवसीयइस दर्शन को आडप दर्शन कहते हैं। आषाढ शुक्ल दशमी को पुन:अपने-अपने रथों में विराजमान वे अपने मूल मंदिर को लौटते हैं। बहुसंख्यक श्रद्धालुओं द्वारा रथों को खींचते देखने का अवसर श्रद्धालुओं को एक बार पुन:मिलता है। इस वापसी यात्रा को बाहुडायात्रा की संज्ञा प्राप्त है। रथ खींचने का तो महत्व है ही, लेकिन श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होने से लोग बारी-बारी से रस्सियों को पकड कर खींचते हैं, किंतु जिन्हें यह सौभाग्य भी नहीं प्राप्त होता वे रथयात्रा के दर्शन मात्र से ही अपार पुण्य की प्राप्ति करते हैं। पौराणिक उक्ति के अनुसार जिन्होंने रथयात्रा के समय रथों के दर्शन भी कर लिए वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। तीनों विग्रह जैसा कि पहले कहा गया काष्ठ-निर्मित हैं, साथ ही ये अधूरे भी हैं। तीनों का मात्र ऊपरी अपूर्ण भाग ही दृष्ट है। इस अधूरेपनका कारण है। एक बार राजा इन्द्रद्युम्नकी इच्छा हुई कि भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के विग्रह निर्मित कराएं। वह बहुत दिनों तक सोचते रहे कि किस वस्तु से इन विग्रहोंका निर्माण हो। कुछ दिनों के पश्चात् समुद्र के ऊपर उन्हें एक विशाल काष्ठ-खण्ड तैरता हुआ मिला। उन्हें आन्तरिक प्रेरणा हुई कि विग्रह इसी दारू अथवा लकडी से निर्मित होंगे। अब उनकी चिंता यह थी कि विग्रहोंके निर्माण के लिए उपयुक्त शिल्पी कहां मिलेगा? इनकी चिंता को स्वयं भगवान जगन्नाथ ने दूर कर दिया और देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा को गुंडीचा-नृपके पास भेज दिया। वृद्ध शिल्पी ने राजा से कहा कि विग्रहोंका निर्माण कर देगा, लेकिन उसके कार्य में इक्कीस दिनों तक कोई बाधा नहीं डालेगा। वह उस काष्ठ-खण्ड के साथ एक कमरे में बंद हो गया। कमरे के कपाटों को इक्कीस दिन के पूर्व नहीं खोलने की उसने अपनी शर्त पुन:दोहराई। राजा तो निश्चित विग्रह-निर्मित होने की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन रानी गुंडीचाका नारी-मन सहज ही द्रवित हो आया। पन्द्रह दिन बीतते न बीतते रानी को लगा कि इतने दिनों में तो वह वृद्ध शिल्पी खान-पान के अभाव में मृत्यु को प्राप्त हो गया होगा। उन्होंने कमरे के कपाट खुलवा दिए। अंदर अधूरे विग्रह पडे थे। शिल्पी का अता-पता नहीं था। यही कहानी है काष्ठ-निर्मित इन अधूरे विग्रहोंकी जिनकी शोभा-यात्रा के दर्शन से व्यक्ति को सुख-समृद्धि एवं मुक्ति की भी प्राप्ति होती है।