अपने शुरूआती जीवन में साईं बाबा भी पहलवान की तरह रहते थे| शिरडी में मोहिद्दीन तंबोली नाम का एक पहलवान रहा करता था| बाबा से एक बार किसी बात पर कहा-सुनी हो गई| जिसके फलस्वरूप उसने बाबा को कुश्ती लड़ने कि चुनौती दे डाली| बाबा अंतर्मुखी थे, फिर भी उन्होंने उसकी चुनौती को स्वीकार कर लिया|
फिर दोनों में बहुत देर तक कुश्ती होती रही| आखिर में बाबा उससे कुश्ती में हार गये| मोहिद्दीन से कुश्ती में हार जाने के बाद बाबा के रहन-सहन और पहनावे में अचानक बदलाव आ गया| अब बाबा कफनी पहना करते, लंगोट बांधते और सिर पर सफेद कपड़ा बांधते, जिससे सिर ढंक जाए| आसन व सोने के लिये बाबा टाट का एक टुकड़ा ही प्रयोग में लिया करते थे| बाबा फटे-पुराने कपड़े पहनकर ही संतुष्ट रहते थे| बाबा सदैव अलमस्त रहते और कपड़ा, खाना इस चीजों पर उनका ध्यान तक नहीं होता|
साईं बाबा सदैव यही कहते थे - "गरीबी अव्वल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई| गरीबों का अल्लाह भाई|' इसका अर्थ यह है कि अमीरी से बड़ी बादशाहत गरीबी में है| इसका कारण यह है कि गरीब का भाई, बंधु या सहायक अल्लाह, ईश्वर है| यदि इस पर विचार किया जाये तो अमीर को अनेकों तरह की चिंताएं हर समय घेरे रहती हैं, वह सदैव उन्हीं में पड़ा रहता है| लेकिन गरीब व्यक्ति सदैव ईश्वर को ही याद करता रहता है| वैसे भी अभावों में ही, गरीबी में ही ईश्वर याद आता है अन्यथा कोई ईश्वर को याद नहीं करता| जो व्यक्ति ईश्वर की भक्ति में लीन रहता है, वह निश्चिंत रहता है| निश्चिंत रहने वाला व्यक्ति ही वास्तव में बादशाह है| इसीलिए शायद बाबा ऐसा उच्चारण किया करते थे|कुश्ती का शौक पुणे तांबे के वैश्य संत गंगागीर को भी था| वे भी अक्सर शिरडी आते-जाते रहते थे| एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहे थे तब अचानक ही उनके मन में कुश्ती त्याग देने का भाव पैदा हो गया| फिर एक अवसर अपर उन्हें ऐसा महसूस हुआ, जैसे कोई उनसे कह रहा हो कि भगवान के साथ खेलते हुए शरीर को त्याग देने में ही इस जीवन की सार्थकता है|
वस्तुत: यह उनकी अन्तर्रात्मा की आवाज थी| जिसका अर्थ यह था कि परमात्मा के श्रीचरणों में लगन लगाओ| इस अन्तर्रात्मा की आवाज को सुनने के बाद संत गंगागीर के मन में इस संसार से पूरी तरह वैराग्य पैदा हो गया और वे पूर्णरूपेण आध्यात्म की ओर प्रवृत्त हो गए|
इसके बाद में उन्होंने पुणे तांबे के नजदीक ही एक मठ बनाया और उसमें अपने शिष्यों के साथ रहने लगे| वहीं पर रहकर उन्होंने मोक्ष की प्राप्ति की|मोहिद्दीन से कुश्ती में हार जान के बाद साईं बाबा में भारी परिवर्तन पैदा हो गया था| बाबा अब पूरी तरह से अंतर्मुखी हो गये थे| बाबा अब न तो किसी से मिलते-जुलते थे और न ही किसी से बात किया करते थे| यदि कोई उनके पास अपनी समस्या आदि लेकर जाता था तो बाबा उसका मार्गदर्शन अवश्य करते थे| उनके श्रीमुख से परमार्थ विचार ही निकलते और उन अमृत बोलों को सुनने वाले धन्य हो जाते|
कुश्ती की घटना के बाद बाबा की जीवनचर्या भी पूरी तरह से बदल गयी थी| अब बाबा का ठिकाना दिन में नीम के पेड़ के नीचे होता जहां पर वे बैठकर अपने स्वरूप (आत्मा) में लीन रहते| इच्छा होने पर गांव की मेड़ पर नाले के किनारे एक बबूल के पेड़ की छाया में बैठ जाते थे| संध्या समय बाबा वायु सेवन के लिए स्वेच्छानुसार विचरण करते थे|
इच्छा होने पर बाबा कभी-कभार नीम गांव भी चले जाया करते थे| वहां के बाबा साहब डेंगले से साईं बाबा को विशेष लगाव था| बाबा साहब डेंगले के छोटे भाई नाना साहब डेंगले थे| उन्होंने दो विवाह किए, फिर भी वे संतान सुख से वंचित थे| एक बार नाना साहब को उनके बड़े भाई बाबा साहब ने शिरडी जाकर साईं बाबा के दर्शन कर उनसे आशीर्वाद लेने को कहा| नाना साहब ने अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन करते हुए शिरडी जाकर साईं बाबा के दर्शन किए| साईं बाबा के दर्शन और आशीर्वाद के परिणामस्वरूप एक निश्चित अवधि के बाद नाना साहब को पुत्र की प्राप्ति हो गई|
ऐसे ही लोगों की मुरादें पूरी होती रहीं और साईं बाबा की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलती चली गयी| अब चारों ओर से अधिक संख्या में लोग बाबा के दर्शन करने के लिए रोजाना शिरडी आने लगे| बाबा अपने किसी भी भक्त को निराश नहीं करते और अपना आशीर्वाद देकर उसकी मनोकामना को पूर्ण करते|
द्वारिकामाई मस्जिद में साईं बाबा को उनके भक्त दिनभर घेरकर बैठे रहते थे| रात को बाबा टूटी-फूटी हुई मस्जिद में सोया करते थे| बाबा का रहने का ठिकाना द्वारिकामाई मस्जिद था| वह दो हिस्सों में टूटी-फूटी इमारत थी| बाबा वहीं रहते, सोते और वहीं बैठक लगाते| बाबा के चिलम, तम्बाकू, टमरेल, लम्बी कफनी, सिर के चारों ओर लपेटने के लिए एक सफेद कपड़ा और सटका था| कुल जमा सामन था जो बाबा सदैव अपने पास रखा करते थे| बाबा अपने सिर पर उस सफेद कपड़े को कुछ इस ढंग से बांधा करते थे कि कपड़े का एक किनारा बाएं कान के ऊपर से होकर पीठ पर गिरता हुआ ऐसा लगता था जैसे कि बाबा ने बालों का जूड़ा बना रखा हो| बाबा उस सिर पर बांधने वाले कपड़े को कई-कई सप्ताह तक नहीं धोया करते थे|
साईं बाबा सदैव नंगे पैरों ही रहा करते थे| उन्होंने अपने पैरों में कभी भी जूते-चप्पल या खड़ाऊँ आदि पहनने का उपयोग नहीं किया था| आसन पर बैठने के नाम पर बाबा के पास टाट का एक टुकड़ा था, जिसे वे दिन के समय अपने बैठने के काम में लिया करते थे| सर्दी से बचने के लिए एक धूनी हर समय जलती रहती थी और आज भी वह धूनी मौजूद है| बाबा दक्षिण दिशा की ओर मुख करके धूनी तापते थे| धूनी में वे छोटे-छोटे लकड़ियों के टुकड़े डालते रहते थे| ऐसा करके बाबा अपनी अहं, इच्छा और आसक्तियों की आहुति दिया करते थे| कभी-कभी लकड़ी के गट्ठर पर हाथ रखे बाबा धूनी को टकटकी लगाये देखते रहते थे| बाबा की जुबान पर सदैव 'अल्लाह मालिक' का उच्चारण रहता था|बाबा के पास हर समय भक्तों का तांता लगा रहता था| उस मस्जिद की पुरानी हालत और स्थानाभाव को देखते हुए बाबा के शिष्यों ने सन् 1912 में उसे मरम्मत करके नया रंग-रूप प्रदान कर दिया| बाबा जब कभी भाव-विभोर हो जाया करते थे तो वे तब अपने पैरों में घुंघरूं बांधकर काफी देर तक नाचते-गाते रहेत थे| यह दृश्य बहुत खूबसूरत होता था|