नाना साहब निमोणकर और उनकी पत्नी दोनों की साईं बाबा पर अटूट श्रद्धा थी| वे काफी समय से शिरडी में ठहरे हुए थे| बाबा की रोजना पूरे मनोयोग से सेवा करना उन्होंने अपना नियम बना रखा था और बाबा के उपदेशों को भी बड़े ही लगाकर सुना करते थे| इसके बाद वे अपने ठहरने के स्थान पर रात को सोने के लिए जाते|
उन्हें इस तरह से शिरडी में रहते हुए कई दिन बीत गये, इस दौरान उन्हें बेलापुर में रहनेवाले अपने पुत्र के बीमार होने का समाचार मिला| पुत्र के बीमार होने का समाचार मिलने पर श्रीमती निमोणकर चिंतित हो गयीं और उन्होंने बेलापुर जाकर अपने पुत्र से मिलने का मन बनाया| पर नाना साहब ने अपनी पत्नी से मजबूरी बताते हुए अगले दिन ही बेलापुर से वापस आने के लिए कहा, तो वह असमंजस में पड़ गई| वहां जाने पर लड़के की बीमारी में कितने दिन रहना पड़े, इसका अनुमान नहीं था और वह अपने पति को नाराज भी नहीं करना चाहती थी| अपने पति को बहुत समझाना चाहा, पर वे न माने|
परेशान मन से वह बेलापुर जाने के लिए साईं बाबा से अनुमति मांगने गई| उस समय बाबा साठेवाड़ा के पास ही खड़े थे| उनके पास और भी कई भक्त खड़े थे| जब श्रीमती निमोणकर ने बाबा के चरणों में प्रणाम कर, जाने के लिए अनुमति मांगी तो बाबा ने कहा - "जाओ, घबराओ मत, बेलापुर तक ही तो जा रही हो, वहां सात-आठ दिन आराम से रहना| सबके मिलकर बाद में वापस शिरडी लौट आना| यहां की चिंता मत करना|"
अपने मन की बात सुनकर वह बड़ी खुशी हुई और निमोणकर बाबा का मुख ताकते रह गए, क्योंकि बाबा की आज्ञा के आगे उनकी आज्ञा का कोई मतलब ही नहीं रह जाता था|