मुम्बई के एक सज्जन थे जिनका नाम थे हरिश्चंद्र पिल्ले| उनके एकमात्र पुत्र को कई वर्ष से मिरगी के दौरे पड़ा करते थे| सभी तरह का इलाज करवाया, पर कोई लाभ न हुआ| आखिर में उन्होंने यह सोचा कि किसी महापुरुष के आशीर्वाद से शायद इसका रोग दूर हो जाये|
सन् 1910 में दासगणु महाराज के कीर्तन मुम्बई में अनेक जगहों पर हुए और बाबा का नाम भी सारे मुम्बई में प्रसिद्ध हो गया था| पिल्ले ने भी एक दिन दासगणु का संकीर्तन सुना| वे जानते थे कि यदि बाबा ने इस पर अपना वरदहस्त रख दिया तो इसका रोग क्षणमात्र में ही नष्ट हो, यह स्वस्थ हो जायेगा|
फिर एक दिन वह अपने परिवार सहित शिरडी में पहुंचे| वहां मस्जिद में जाकर उन्होंने परिवार सहित बाबा की चरणवंदना की| बाबा की मंगल मूरत देख पिल्ले की आँखें भर आयीं और उन्होंने अपना रोगी पुत्र बाबा के चरणों में लिटा दिया| जैसे ही बाबा ने रोगी पुत्र पर दृष्टिपात किया, अचानक उसमें एकदम बदलाव-सा आया| उसकी आँखें फिर गईं और वह बेहोश हो गया| मुंह से झाग निकलने लगे, शरीर पसीने से बुरी तरह भीग गया| ऐसा लगने लगा कि शायद अब जीवित न बचेगा|
अपने पुत्र की ऐसी हालत देखकर वे घबरा गये, क्योंकि अब से पहले वह इतनी ज्यादा देर तक बेहोश कभी नहीं रहा था| उनकी पत्नी की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी| वे तो अपने पुत्र को इलाज के लिए लाये थे, लेकिन दिखता कुछ और ही है|
साईं बाबा उनका दर्द समझते थे| इसलिए बाबा उनसे बोले - "व्यक्ति को कभी भी अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए| एक पल में कुछ नहीं होता| इसे उठाकर अपने निवास स्थान पर उठाकर ले जाओ| जल्दी ही होश आ जायेगा| चिंता मत करना|"
दोनों बच्चे को उठाकर बाड़े में ले आये| वहां आने पर कुछ ही देर में उसे होश आ गया| यह देख वह बहुत प्रसन्न हुए| उनकी चिंता दूर हो गयी| शाम को पति-पत्नी दोनों बच्चे को लेकर बाबा के दर्शन करने मस्जिद में आये और बाबा की चरणवंदना की| तब बाबा ने मुस्कराते हुए कहा - "अब तो तुम्हें विश्वास हो गया? जो विश्वास रहते हुए धैर्य से रहता है, ईश्वर उसकी रक्षा अवश्य करता है|"
पिल्ले खानदानी रईस व्यक्ति थे| अपना पुत्र ठीक हो जाने की खुशी में उन्होंने वहां उपस्थित सभी लोगों को मिठाई बांटी| बाबा को उत्तम फल, फूल, वस्त्र, दक्षिणा आदि श्रीचरणों में भेंट की| अब पति-पत्नी दोनों की निष्ठा बाबा के प्रति और भी गहरी हो गयी और वे पूरी श्रद्धा और भक्ति-भाव से बाबा की सेवा करने लगे|
कुछ दिनों तक शिरडी में रहने के बाद जब मस्जिद में जाकर पिल्ले ने बाबा से मुम्बई जाने की अनुमति मांगी, तब बाबा ने उन्हें ऊदी और आशीर्वाद देते हुए पिल्ले से कहा - "बापू ! दो रुपये मैं तुम्हें पहले दे चुका हूं| अब तीन रुपये और देता हूं| इन्हें घर पर पूजा-स्थान पर रखकर, इनका नित्य पूजन करना| इसी से तुम्हारा कल्याण होगा|"
पिल्ले ने प्रसाद रूप में रुपये लेकर बाबा को साष्टांग प्रणाम किया| वे इस बात को नहीं समझ पाये कि वह तो अपने जीवन में पहली बार शिरडी आये हैं फिर बाबा ने उन्हें दो रुपये कब दिये? परन्तु वे बाबा से न पूछ सके और वापस लौटते समय इसके बारे में ही सोच-विचार करते रहे| जब कुछ समझ में नहीं आया तो वे चुपचाप बैठ गये| घर लौटने पर उन्होंने अपनी बूढ़ी माँ को शिरडी का सारा हाल कह सुनाया| पहले तो उनकी माँ भी दो रुपये वाली बात न समझ पायी, फिर सोच-विचार करने पर उन्हें एक घटना याद आ गयी| वे अपने पुत्र से बोलीं - "बेटा, जैसे तुम अपने पुत्र को लेकर साईं बाबा के पास शिरडी गये थे, उसी तरह तेरे बचपन में तुम्हारे पिता मुझे लेकर अक्कलकोट महाराज के दर्शन के लिए गये थे| तुम्हारे पिता उनके परमभक्त थे| महाराज सिद्धपुरुष त्रिकालज्ञ थे| महाराज ने तुम्हारे पिताजी की सेवा स्वीकार करके उन्हें दो रुपये दिये थे और उन रुपयों का पूजन करने को कहा था| तुम्हारे पिता उन रुपयों का जीवनभर पूजन करते रहे थे, लेकिन उनके देहान्त के बाद पूजन यथाविधि नहीं हो पाया और वे रुपये न जाने कहां खो गये| हम तो उन रुपयों को भूल ही गये थे|
खैर, अब पिछली बातों को जाने दो| यह तुम्हारा सौभाग्य है कि साईं बाबा के रूप में तुम्हें अक्कलकोट महाराज ने अपने कर्त्तव्य को याद करा दिया| अब तुम इन रुपयों का पूजन कर उनकी वास्तविकता को समझो और संतों का आशीर्वाद पाने पर अपने को गर्वित मानो| अब तुम साईं बाबा का दामन कभी न छोड़ना, इसी में तुम्हारी भलाई है|"
माता के मुख से सारी बात सुनकर वे दो रुपयों का रहस्य भी जान गये और बाबा की त्रिकालज्ञता का ज्ञान भी हो गया और वे बाबा के परम भक्त बन गये|