अहमदनगर के रहनेवाले दामू अण्णा जो बाबा के भक्त थे| इनका वर्णन रामनवमी के उत्सव के प्रसंग में आ चुका है| उनके साथ घटी एक और घटना का वर्णन किया जा रहा है, कि साईं बाबा ने उन पर जाने वाला संकट कैसे टाल दिया?
एक बार दामू अण्णा के मुम्बई में रहनेवाले मित्र का पत्र आया| उसने उसमें लिखा था कि इस वर्ष रूई का सौदा करनेवाला है और जब बाजार में भाव चढ़ जायेंगे तब उसे बेच देगा| इस सौदे में वह उसे साझीदार बनाना चाहता था| उसने आशा व्यक्त की थी कि इस सौदे में लगभग दो लाख रुपये का लाभ होने की उम्मीद है| यदि वह आधे का साझीदार बन जायेगा तो उसे एक लाख रुपये मिल जायेंगे| यह मौका चूकना नहीं चाहिए, इसलिए इसका लाभ उठाया जाए|पत्र को पढ़ने के बाद दामू अण्णा के मन में हलचल पैदा हो गयी| पैसा कमाने का सुनहरी मौका सामने खड़ा था| यदि लाभ हुआ तो बैठे-बिठाये एक लाख मिल जायेंगे, यदि बदकिस्मती से भाव गिर गये तो... ! ऐसे विचार मन में निरंतर आ-जा रहे थे| वे कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे| वे साईं बाबा के परमभक्त थे| अंतत: उन्होंने इस बारे में बाबा से पूछने का निर्णय किया| उन्होंने एक पत्र में सारा विवरण लिखकर शामा को भेजा और प्रार्थना की कि बाबा को सारी बात बताकर जो भी बाबा की आज्ञा हो, उन्हें पत्र द्वारा सूचित कर दे|
अगले दिन ही पत्र शामा को मिल गया| शामा ने वह पत्र लेकर मस्जिद में बाबा के चरणों में रख दिया| बाबा ने जब शामा से पत्र के बारे में पूछा तो शामा ने बाबा को बताया - "देवा ! अहमदनगर के दामू अण्णा ने भेजी है और आपसे आज्ञा मांगी है|" बाबा सब कुछ जानते थे| फिर भी अनजान बनते हुए उन्होंने शामा से पूछा - "इस पत्र में क्या लिखा है? उसने क्या योजना बनाई है? इसका भगवान ने जो दिया है उसमें संतोष नहीं है| आसमान को छूना चाहता है| अच्छा, जरा पढ़कर तो सुना, देखूं क्या लिखा है?"
शामा ने पत्र को पढ़कर कहा कि इसमें तो वही सब कुछ लिखा है जो अपने बताया है| इस पर बाबा ने कहा - "शामा, इस सेठ की अक्ल मारी गयी है| इसे किसी चीज का अभाव नहीं है| फिर भी पैसों का लालच क्यों? वह आधी रोटी में ही संतोष करे, लाखों के चक्कर में न पड़े|"
इधर दामू अण्णा बाबा की आज्ञा का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे| शामा ने बाबा की आज्ञानुसार पत्र का उत्तर लिखकर भेज दिया| पत्र मिलने के बाद वह निराश हो गये| उनके लखपति बनने की राह में रोड़ा अटक गया| यदि बाबा की आज्ञा मिल जाती तो मैं लखपति बन जाता| फिर उसने सोचा कि पत्र भेजकर उसने गलती की है| मुझे स्वयं जाकर बाबा से पूछना चाहिए था| पत्र के द्वारा बताने और सामने कहने में अंतर तो है ही| मैं स्वयं जाकर बात करता हूं| यदि बाबा ने आज्ञा दे दी तो फिर क्या कहने !
अगले ही दिन दामू अण्णा बाबा की आज्ञा प्राप्त करने के लिए शिरडी पहुंच गये| बाबा के दर्शन करके वह उनकी सेवा करते रहे, परंतु सौदे वाली बात करने के बारे में बाबा से पूछने का साहस नहीं जुटा पाए| फिर उन्होंने मन में बाबा की आज्ञा पाने के लिए विनती की कि यदि बाबा ने कृपा कर दी तो, इस सौदे में जो लाभ होगा, उसमें से कुछ अंश बाबा को भेंट कर देंगे| बाबा तो अंतर्यामी थे| वे दामू अण्णा के मन की बात जान गए| बाबा ने उससे कहा - "मुझे तेरे मुनाफे में से एक पाई भी नहीं चाहिए, यह समझ ले|"
बाबा की अस्वीकृति का संकेत सुनकर, उन्होंने बड़े बेमन से अपने मुम्बईवाले मित्र को साझेदार न बनने की बात लिखते हुए पत्र भेज दिया| पत्र पढ़ने के बाद दोस्त ने सोचा, भाग्य ने उसके साथ खिलवाड़ किया है| मैं दूसरा साझीदार ढूंढ लूंगा|
इधर दामू अण्णा हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे| कुछ समय बाद बाजार ने ऐसी पलटी खाई कि उनका मुम्बई वाला दोस्त पूरी तरह से डूब गया| मुनाफा तो दूर बल्कि वह कर्ज के भारी बोझ से दब गया| पता चलने पर दामू अण्णा को बहुत दुःख हुआ और फिर वह मन-ही-मन बाबा के चरणों में प्रणाम करने लगा कि बाबा की कृपा से वह इस मुसीबत से बच गया|