ठीक उसी समय मस्जिद में घंटी बजने लगी| बाबा के भक्त रोजाना दोपहर को बाबा की पूजा और आरती करते थे| यह घंटी दोपहर की पूजा-आरती की सूचक थी| शामा और हेमाडपंत तेजी से मस्जिद की ओर चल पड़े| बापू साहब जोग पूजन शुरू कर चुके थे| सभी आरती गा रहे थे| शामा हेमाडपंत का हाथ पकड़कर बाबा के दायीं ओर बैठ गये, जबकि हेमाडपंत सामने बैठ गये|
तब बाबा ने हेमाडपंत से कहा - "शामा ने तुझे जो दक्षिणा दी है, वह मुझे दे|" तब हेमाडपंत से कहा - "बाबा ! शामा तो यहीं पर है - और दक्षिणा के लिये उसने पंद्रह नमस्कार दिये हैं|" तब साईं बाबा हँस पड़े और बोले - "ठीक है, अब मुझे बता तुम दोनों के बीच क्या बातें हुई हैं?" इस पर हेमाडपंत ने शुरू ने अंत तक हुई सारी बातें विस्तार से बता दीं| उसने बताया वार्ता बड़ी सुखदायी रही| विशेषकर उस वृद्ध महिला की कथा अद्भुत थी| इस कथा के माध्यम से आपने मुझ पर कृपा की है| तब बाबा ने पूछा - "यह कहानी कितनी मीठी है?" शामा ने कहा - "बाबा, इस कहानी को सुनकर मेरे मन की चंचलता दूर हो गयी| अब मुझे रास्ता समझ आने लगा (यानि सत्य मार्ग का पता चल गया)| अब मैं एकदम शांत हूं|"
बाबा ने कहा, मेरी प्रणाली अनोखी है| यदि इस कहानी को स्मरण रखोगे तो बड़ी सार्थक सिद्ध होगी| फिर बाबा खुशी से हँस पड़े और बोले - "अब मेरा कहा मानकर सुने ले ! चैतन्य-स्वरूप परमात्मा सब जगह मौजूद है| इसलिए प्रत्येक प्राणी के अन्दर जो चेतना है उसी का ध्यान करना चाहिए, फिर वह मिल जाता है| जो मनुष्य यह नहीं कर सकता उस मेरे स्वरूप का दिन-रात ध्यान करना चाहिये| ऐसा करने से मन स्थिर होकर परमात्मा से एकरस हो जाएगा| ध्येय व ध्यान का भेद समाप्त हो जायेगा| गुरु और शिष्य का सम्बंध कछुवी माँ और उसके बच्चों के जैसा है| जिस तरह कछुवी नदी तट पर रहकर, दूसरे तट पर रहनेवाले अपने बच्चों का फिर प्रेम-दृष्टि से पालन-पोषण करती है| वह न तो अपने बच्चों का हृदय से लगाकर रखती है और न ही उन्हें अपना दूध ही पिलाती है| बच्चे भी अपनी माँ को याद करते रहते हैं| कछुवी की प्रेम-दृष्टि ही उनके लिए आहार है|
इतने में ही आरती सम्पन्न हो गई और भक्त ऊंचे स्वर में 'साईं बाबा की जय-जयकार करने लगे' - और बापू साहब जोग ने सबको प्रसाद में मिश्री बांटी| बाबा को भी मिश्री प्रसाद दिया| बाबा ने अपने हाथ का मिश्री प्रसाद हेमाडपंत को देते हुए कहा - "यदि तुम इस कहानी को सदैव याद रखोगे तो तुम्हारी स्थिति मिश्री जैसी मधुर हो जायेगी और तुम्हारी सभी कामनाएं पूर्ण होंगी और तुम्हारा कल्याण हो जायेगा|"
हेमाडपंत ने बाबा के चरणों में सिर झुकाया और आँखों में आँसू भरकर बोले - "बाबा, आपका आशीर्वाद ही मेरे लिए बहुत है| आप ही मुझे सम्भालिये|"
* लेन-देन के बिना कोई भी किसी से नहीं मिल सकता| इसलिए मनुष्य तो क्या, किसी भी जीव के प्रति नफरत का भाव मत रखो| सभी से आदर-भाव से मिलो| अभद्रता का व्यवहार मत करो| भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन को कपड़ा, राहगीर को बैठने के लिए जगह दो| यदि तुम्हारी ऐसा करने की सामर्थ्य नहीं है तो कम से कम उससे बुरा मत बोलो| यदि कोई तुम्हें बुरा बोले तो उस पर क्रोध मत करो| ऐसा करने वाले को सुख मिलता है| संसार चाहे इधर से उधर हो जाये तुम अपने आदर्श पर स्थिर रहो, जो कुछ हो रहा है, उसे देखते रहो| तुम द्वैतभाव को त्याग दो| द्वैतभाव से गुरु-शिष्य में पृथकत्व आ जाता है| सबका अल्लाह मालिक है, वही सबका रखवाला है| वही सबको मार्ग दिखाता है और वही सबकी इच्छाएं पूरी करता है| पूर्वजन्म का सम्बंध होने से ही तेरी और मेरी भेंट हुई है| फिर आपस में प्यार बांटकर खुश रहो| यहां कोई स्थिर रहनेवाला नहीं है| जब तक सांसे चलती हैं तब तक ही जीवन है और अपने जीतेजी जिसने परमात्मा को पा लिया, वह ही धन्य है|
इस उपदेश को सुनकर हेमाडपंत को अति आनंद हुआ और वे बाबा की चरणवंदना कर अपने घर लौटे|