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Acharya Prashant

Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत का जन्म सन 1978 में महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ। उनका नाम प्रशांत त्रिपाठी था वे तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उनके पिता भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत थे तथा माँ गृहिणी थीं। आचार्य प्रशांत के बचपन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश में ही बीता।

बाल्यकाल से ही आचार्य प्रशांत के माता-पिता व शिक्षकों को उनकी विलक्षणता दिखने लगी थी। एक बालक के रूप में वह कभी शरारती तो कभी सहसा चिंतनशील हो जाया करते थे। अपने संगी साथियों में वह एक ऐसे ऊर्जावान मित्र के रूप में जाने जाते थे जिसके व्यवहार से यह निश्चित नहीं हो पाता था कि मज़ाक कर रहा है या गंभीर है। 

आचार्य प्रशांत एक मेधावी छात्र थे, उन्होंने लगातार अपनी कक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। उनकी माता को अपने बच्चे के शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए कई बार ‘मदर क्वीन’ के रूप में सम्मानित किया गया। आचार्य प्रशांत के शिक्षक कहते थे कि उन्होंने कभी ऐसा विलक्षण छात्र नहीं देखा था, जो विज्ञान और गणित में उतना ही मेधावी हो, जितना कि मानविकी में, साथ ही वे अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओँ में एक सा पारंगत हो।

पाँच वर्ष की आयु से ही आचार्य प्रशांत एक अत्युत्सुक छात्र थे, किताबें पढ़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। उनके पिता के पुस्तकालय में हर देश, काल एवं संस्कृति से जुड़ा उत्तम साहित्य मौजूद था, जिसमें उपनिषदों जैसे आध्यात्मिक ग्रंथ भी थे। आचार्य प्रशांत कई-कई घंटे घर के शांत कोनों में, ऐसी किताबों में अक्सर डूबे हुए पाए जाते थे, जिन्हें केवल बड़ी उम्र के परिपक्व लोग ही समझ पाते थे। 

कभी-कभी आचार्य प्रशांत भोजन, और यहाँ तक कि सोने के समय में कटौती करके, पढ़ने में खोए रहते थे। ग्यारह साल का होते-होते, उन्होंने अपने पिता के संग्रह में उपलब्ध सब कुछ पढ़ लिया था, और अधिक की माँग करने लगे थे।

आचार्य प्रशांत में आध्यात्मिक गहराई के आरम्भिक लक्षण तब दिखाई दिए जब उन्होंने ग्यारह वर्ष की उम्र में कविताएँ लिखना शुरू किया। शब्दों के रहस्यमयी रंगों में उन्होंने ऐसे काव्यात्मक सवाल पूछे जो अक्सर बड़े विद्वान भी समझ नहीं पाते थे।

कई वर्षों तक लखनऊ शहर में रहने के बाद आचार्य प्रशांत अपने पिता की स्थानान्तरणीय नौकरी के कारण वर्ष की आयु में दिल्ली के पास गाज़ियाबाद शहर में आ गए। किशोरावस्था और शहर के परिवर्तन ने उस प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया जो पहले ही गहरी जड़ें ले रही थी। यहां आकर आचार्य प्रशांत रातों में देर तक जागने लगे और अक्सर रात को चुपचाप आकाश को निहारते रहते थे। फिर समय के साथ साथ उनकी कविताओं की गहराई बढ़ने लगी। उस समय कई कविताएँ उन्होंने रात्रिकाल और चंद्रमा को ही समर्पित करके लिखी। अब इनका ध्यान रहस्यवाद की ओर अधिक बहने लगा था।

इसके साथ ही आचार्य प्रशांत अकादमिक क्षेत्र में भी परस्पर बेहतर प्रदर्शन करते रहे। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने आचार्य प्रशांत को बोर्ड परीक्षा में एक नया मानदंड स्थापित करने, और साथ ही एन.टी.एस.ई. परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए एक सार्वजनिक समारोह में सम्मानित भी किया। इंटरमीडिएट करने के बाद आचार्य प्रशांत ने प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में प्रवेश प्राप्त किया। आई. आई. टी. के दिनों में उन्होंने न केवल दुनिया को समझा, साथ ही साथ छात्र-राजनीति में सक्रिय हो गए, और राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद व नाट्य प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन किया। 

आचार्य प्रशांत आई. आई. टी. के परिसर में एक जीवंत व्यक्ति, एक भरोसेमंद छात्र नेता और मंच पर एक उत्साही कलाकार की तरह जाने जाते थे। वे लगातार ऐसी वाद-विवाद और आशुभाषण प्रतियोगिताओं को जीतते गए, जिनमें देशभर से प्रतिभागी हिस्सा लेते थे। उन्होंने बोधयुक्त नाटकों में निर्देशन और अभिनय के लिए पुरस्कार भी जीते। एक नाटक, ‘झपुर्झा’ में आचार्य प्रशांत के एक प्रदर्शन के लिए उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार’ मिला, जिसमें उन्होंने न एक शब्द कहा और न ही एक कदम हिले।

जिस तरह से ज़्यादातर लोग दुनिया को देखते और समझते हैं, जिस तरह से हमारा मन संस्कारित है, और जैसे लोगों के बीच सम्बन्ध हैं, और जैसे सांसारिक संस्थान हमें जीवन निर्देश देते हैं, इसमें कुछ मूलरूप से गलत है। अपने विश्लेषण में उन्होंने पाया कि यह दोषपूर्ण दृष्टिकोण ही मानवीय पीड़ा का मूल कारण है। वे मनुष्य की अज्ञानता, संस्कारित हीनभावना, आंतरिक गरीबी, उपभोगतावाद, मनुष्य की जानवरों और पर्यावरण के प्रति हिंसा, संकीर्ण विचारधारा और स्वार्थकेन्द्रित शोषण से आहत थे। आचार्य प्रशांत का व्यक्तित्व मनुष्य जीवन के अँधेरे को चुनौती देने के लिए उतावला था, और एक युवा के रूप में उन्होंने आंकलन किया कि ‘भारतीय सिविल सेवा’ या प्रबंधन मार्ग इसके लिए उपयुक्त होगा।

1999 में आई. आई. टी. से स्नातक करने के बाद आचार्य प्रशांत ने सन 2000 में भारतीय सिविल सेवा और भारतीय प्रबंधन संस्थान - अहमदाबाद में एक साथ प्रवेश प्राप्त किया। उनकी रैंक के आधार पर उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा आवंटित नहीं हुई और साथ ही उन्होंने देखा कि क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए प्रशासनिक सेवा उतना अच्छा विकल्प रह भी नहीं गया है। तो उन्होंने आई. आई. एम. जाने का विकल्प चुना।

आचार्य प्रशांत के आई. आई. एम. में दो साल शैक्षणिक रूप से समृद्ध थे। लेकिन वो ऐसे छात्र नहीं थे जो खुद को नौकरी और अंकों के लिए सीमित कर दें, जैसा कि प्रतिष्ठित संस्थानों में अक्सर होता है। वे नियमित रूप से गांधी आश्रम के पास एक झुग्गी में संचालित एक एन.जी.ओ. में छोटे बच्चों को पढ़ाते थे और बच्चों पर खर्च करने के लिए वरिष्ठ विद्यार्थियों को गणित भी पढ़ाते थे। 

इसके अलावा मनुष्य के जीवन में अँधेरे के प्रति अपने गुस्से को रंगमंच के माध्यम से व्यक्त भी करते रहे। उन्होंने ‘खामोश अदलात जारी है’, ‘राइनोसोरस’, ‘पगला घोड़ा’ और ‘16 जनवरी की रात’ जैसे नाटकों में अभिनय के साथ-साथ उन्हें निर्देशित भी किया। एक समय पर वह दो समानांतर नाटकों का निर्देशन कर रहे थे, जिसे देख अध्यापक व उनके सहपाठी सभी आश्चर्यचकित थे। नाटकों का प्रदर्शन आई. आई. एम. सभागार में शहर और बाहरी दर्शकों के लिए किया गया था। आई. आई. एम. परिसर के भोगवादी एवं लाभ-केंद्रित वातावरण में वे खुद को बेमेल पाते थे। इन अस्तित्ववादी और विद्रोही नाटकों ने उनकी पीड़ा को एक सृजनात्मक दिशा देनें में मदद की और उन्हें आगे आने वाले बड़े मंचों के लिए तैयार किया।

आई. आई. एम. से परास्नातक होने के बाद आचार्य प्रशांत ने तीन-चार वर्ष तक अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय एवं भारतीय कंपनियों में काम किया। पर न कहीं मन लगा न कहीं टिके। वे इस अवधि को ‘भटकाव’ और ‘खोज’ के रूप में वर्णित करते हैं। कॉर्पोरेट जगत में अर्थवत्ता की तलाश करते हुए शांति के लिए वे समय निकालकर अक्सर शहर और काम से दूर हिमालय पर चले जाते थे। 

धीरे-धीरे अपने जीवन लक्ष्य को वे स्पष्ट करते जा रहे थे। कुछ अद्भुत उनके माध्यम से व्यक्त होने के लिए बेचैन हो रहा था, और वह किसी पारंपरिक मार्ग के माध्यम से नहीं हो सकता था। इस समयावधि में आचार्य प्रशांत का स्वाध्याय व संकल्प और गहन होता चला गया। अपने ज्ञान और आध्यात्मिक साहित्य को आधार बना कर उन्होंने स्नातकोत्तर के छात्रों व अनुभवी पेशेवरों के लिए लीडरशिप पर आधारित पाठ्यक्रम तैयार किया। पाठ्यक्रम कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाया गया और कभी-कभी वे उम्र में अपने से बड़े छात्रों को भी पढ़ाते थे। इस पाठ्यक्रम को सराहनीय सफलता प्राप्त हुई और उनको आगे का रास्ता और स्पष्ट होने लगा।

अट्ठाइस वर्ष की आयु में आचार्य प्रशांत ने कॉर्पोरेट जगत को अलविदा कहा और आध्यात्मिकता के माध्यम से एक नई मानवता का निर्माण करने हेतु उन्होंने ‘अद्वैत लाइफ़-एजुकेशन’ की स्थापना की – जिसका उद्देश्य साफ था। मानव चेतना में एक गहरा परिवर्तन लाना। शुरुआत कॉलेज में पढ़ रहे छात्रों से की गई जिन्हें आत्मबोध पर आधारित एक पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाने लगा। प्राचीन आध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान को सरल और आकर्षक गतिविधियों के रूप में छात्रों तक ले जाया गया।

‘अद्वैत’ मिशन का काम महान और प्रशंसनीय होने के बावजूद, उसके सामने बड़ी चुनौतियाँ भी थीं। सामाजिक और शैक्षणिक प्रणाली ने छात्रों को केवल परीक्षा पास करके नौकरियाँ पाने के लिए यांत्रिक तौर पर प्रशिक्षित कर दिया था। अद्वैत मिशन द्वारा ‘आत्मबोध आधारित शिक्षा’, ‘जीवन की बुनियादी शिक्षा’, छात्रों के लिए इतनी अलग और नई थी कि छात्र इस नई शिक्षा के प्रति अक्सर उदासीन हो जाते थे। 

अधिकांशतः कॉलेजों की प्रबंधन समिति और छात्रों के अभिभावक भी इस साहसपूर्ण प्रयास को समझने में असफल रहते। हालांकि इन सभी कठिनाइयों के बीच ‘अद्वैत’ ने अच्छा प्रदर्शन करना जारी रखा। इस प्रकार मिशन का विस्तार जारी रहा, जिसने लाखों छात्रों के जीवन को छुआ और आज भी रूपांतरित कर रहा है।

तीस वर्ष की आयु में, आचार्य प्रशांत ने सार्वजनिक रूप से सभाओं में बोलना शुरू किया। उनके सत्र खुली चर्चा के रूप में आयोजित किए जाने लगे थे। जल्द ही सभी को यह स्पष्ट होने लगा कि ये सत्र श्रोताओं को गहन ध्यान में ले जाते हैं। इनसे मन को एक अद्भुत शांति और स्पष्टता मिलती है। कुछ समय बाद ये सत्र रिकॉर्ड होकर इंटरनेट पर प्रकाशित किए जाने लगे।

उसी समय आचार्य प्रशांत ने अद्वैत-बोध शिविरों का आयोजन शुरू किया। वे अपने साथ अनेक साधकों को लगभग एक सप्ताह की अवधि के लिए हिमालय पर ले जाने लगे। ये शिविर हज़ारों साधकों के जीवन परिवर्तन का माध्यम बने और कुछ ही समय में इन शिविरों की आवृत्ति में वृद्धि हुई। बोध और शांति प्रदान करते सैकड़ों अद्वैत बोध शिविरों का आयोजन आज तक किया जा चुका है। साथ ही साथ हज़ारों वीडिओ, लेख व कई पुस्तकों का प्रकाशन भी हो चुका है।

आचार्य प्रशांत का आध्यात्मिक साहित्य मानव इतिहास के उच्चतम शब्दों के समतुल्य है। वे दुनिया के सभी हिस्सों से आने वाले अनेक साधकों से संवाद करने में, अद्वैत बोध शिविरों और अन्य मिशन सम्बंधित कार्यों में व्यस्त रहते हैं। उनके शब्द एक तरफ़ मन पर चोट करते हैं और दूसरी तरफ़ प्रेम और करुणा से सहारा देते हैं। एक स्पष्टता है जो उनकी उपस्थिति मात्र से चारों ओर फैलती है। उनकी शैली स्पष्ट, रहस्यमयी और करुणामयी है। अहंकार और जड़ धारणाएँ उनके निर्दोष व सरल सवालों के सामने छिप नहीं पाती। वे अपने दर्शकों के साथ खेलते है – उन्हें ध्यानपूर्ण मौन की गहराइयों तक ले जाते हैं, हँसते हैं, मज़ाक करते हैं, चुनौती देते है, समझाते हैं।

एक ओर उनके व्यक्तित्व से किसी करीबी मित्र की झलक मिलती है, तो दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होता है कि उनके शब्द बहुत दूरस्थ एक स्रोत से आ रहे हैं।

इंटरनेट पर उनके द्वारा अपलोड किए गए हज़ारों वीडियो और लेख कीमती आध्यात्मिक संसाधन हैं, जो सभी जिज्ञासुओं के लिए उपलब्ध हैं। व्यक्तिगत रूप से भी वे सत्य के ईमानदार साधकों से मिलने के लिए सदा तत्पर हैं।

आज अद्वैत आंदोलन लाखों व्यक्तियों के जीवन को रूपांतरित कर चुका है। हर देश, धर्म, लिंग, संस्कृति एवं आयु के लोग आचार्य प्रशांत को सुन रहे हैं और प्रेमपूर्वक, शांत एवं ईमानदार जीवन जीने की प्रेरणा पा रहे हैं।

आचार्य प्रशांत का जीवन मानवमात्र के उद्धार के साथ प्रत्येक चैतन्य प्राणी के संरक्षण हेतु समर्पित है। वे अपने सेवाओं के माध्यम से विलुप्त होते जीव-जंतुओं एवं जानवरों के प्रति हो रही हिंसा का पुरजोर विरोध करते हैं और वैश्विक पटल पर एक युवा आध्यात्मिक मिशनरी के रूप में प्रख्यात हैं। 

 
Comments:
 
Posted Comments
 
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Posted By:  Priyanshu
 
"बहुत अच्छी जानकारी है"
Posted By:  Anshu Rathore
 
"राजा के पुत्र का नाम रतन कुँवर था और ये राजस्थान में जयपुर से100 kmदौसा से आगे गढ़मोरां गाँव में है जहाँ 1 पवित्र कुंड भी है जिसका पानी चंद्रमा के जैसा सुन्दर है .....shyam shastri 9887111972"
Posted By:  श्याम शास्त्री
 
"Hinduo ko danwirta ka path in jaise mahatmao se hi to mila hai, jai ho raja ji ki !"
Posted By:  Kisan Mittal
 
"raja mordhwaj ke putra ka kya naam tha aur yeh ghatna kis hindu granth me hai I WANT TO KNOW"
Posted By:  sushil
 
"AISE BHKT KI BHAKTI SUN KAR RONGTE KHDE HO JATE HAI BHAGWAN BHI IN K SAMNE NATMASTAK HO JATE HAI"
Posted By:  MOOLSINGH RATHORE
 
"ASE VEER BHAKT KEVAL HINDU DHARM ME HI HO SAKTE HAI JO ITNI KATHIN PARIKSHA DE SAKE"
Posted By:  PARAM
 
 
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