गंगा किनारे एक संत का आश्रम था, जिसमें तीन शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। संत समय-समय पर अपने शिष्यों की परीक्षा लेते रहते थे। एक दिन उन्होंने शिष्यों को एक मंदिर बनाने के लिए कहा। तीनों शिष्य मंदिर बनाने लगे।
मंदिर पूरा होने में कई दिन लग गए। जब वह पूरी तरह बनकर तैयार हो गया, तब संत ने तीनों को अपने पास बुलाया और पहले शिष्य से पूछा- जब मंदिर बन रहा था, तब तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा था?
शिष्य ने उ
त्तर दिया- गुरुदेव! मुझे पूरे दिन काम करना पड़ता था। लगता था कि मुझमें और एक गधे में कोई अंतर ही नहीं रह गया है।
मंदिर के निर्माण का कार्य करते-करते मैं तो परेशान हो गया था। संत ने दूसरे शिष्य से भी यही प्रश्न पूछा तो वह बोला- गुरुदेव! मैं भी सारा दिन कार्य करता था।
मंदिर के निर्माण कार्य के दौरान मेरे मन में तो यही विचार आ रहा था कि जल्द-से-जल्द मंदिर बने, जिससे ईश्वर प्रसन्न हो जाएं और हमारा कुछ कल्याण हो जाए। संत ने तीसरे शिष्य से पूछा तो उसने भाव भरे हृदय से उत्तर दिया- गुरुदेव!
मैं तो प्रभु की सेवा कर रहा था। निर्माण कार्य के दौरान मैं प्रतिदिन प्रभु का धन्यवाद करता था, क्योंकि उन्होंने मेरी मेहनत का कुछ अंश स्वीकार किया।
मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता हूं। यह सुनकर संत ने उस शिष्य को गले लगा लिया। फिर उन्होंने अन्य शिष्यों को समझाते हुए कहा- तुम तीनों के कार्य करने के ढंग में अंतर था। मंदिर तो तुम तीनों ही बना रहे थे।
एक गधे की तरह कार्य कर रहा था, दूसरा स्वयं के कल्याण के लिए और तीसरा समर्पित भाव से कार्य कर रहा था। भावों का अंतर तुम्हारे कार्य की गुणवत्ता में भी देखा जा सकता है।
क्या किया जा रहा है, वह महत्वपूर्ण नहीं। उसे किस भावना के साथ किया जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है।