विश्व-प्रसिद्ध पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान् जगन्नाथ, दाऊ बलराम और सुभद्रा के विग्रहों को मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठित कराने तक जगन्नाथ पुरी में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम होते हैं ।
भगवान् जगन्नाथ के प्राकट्य और मन्दिर में उनके विग्रह की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में आख्यान है कि एक बार द्वारिकाधीश भगवान् श्रीकृष्ण महल में शयन कर रहे थे । निद्रा में ही उनके मुख से ‘राधा’ नाम निकल गया । रानियों ने प्रभु के श्रीमुख से ‘राधा’ नाम सुना तो उनके मन में कौतुहल जाग गया कि राधा कौन है ? वे अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिये माता रोहिणी के पास पहुंची । माता रोहिणी ने उन्हें राधा-कृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में कथाएँ सुनानी आरम्भ की । वे सभी अन्तःपुर के बन्द कक्ष में थीं, फिर भी श्रीकृष्ण के उधर आने की सम्भावना को देखते हुए सतर्कतावश भगवान् की बहन सुभद्रा को अन्तःपुर के द्वार पर बिठा दिया गया ।
कुछ ही देर में श्रीकृष्ण तथा दाऊ बलराम उधर आ गए । उन्हें बहन सुभद्रा ने द्वार पर ही रोक लिया, यद्यपि वे अन्तःपुर के द्वार पर खड़े थे, तथापि अन्दर से माता रोहिणी की आवाज उन तक पहुँच रही थी । ‘राधा-कृष्ण’ की उन कथाओं को सुनते-सुनते तीनों प्रतिमा के समान निश्चल एवं स्थिर हो गए । उनके हाथ-पैर भी नहीं दिख रहे थे । तभी उधर आए नारदजी ने उनको उस अवस्था में देखा, तो अपलक देखते रह गए । उन्हें भगवान् का वह रुप इतना नयनाभिराम लगा कि उन्होंने प्रभु श्रीकृष्ण से उसी रुप में पृथ्वी पर रहने की प्रार्थना की । भगवान् को पूर्वकाल में दिए वरदान के अनुसार राजा इन्द्रद्युम और विमला को दर्शन भी देने थे, अतः उन्होंने नारदजी की विनती स्वीकार कर ली । भगवान् ने नारद जी को आश्वासन दिया कि वे नीलाचल क्षेत्र स्थित पुरी में अवतरित होंगे ।
कलियुग के आरम्भिक काल में मालव देश के राजा इन्द्रद्युम की इच्छा जब प्रभु के दर्शन की हुई तो वह नीलाचल पर्वत पर गया । तब तक देवगण प्रभु का विग्रह वहाँ से देवलोक ले जा चुके थे ।
वहाँ भगवान् का विग्रह न देख इन्द्रद्युम निराश एवं उदास हो गया । वह लौटने लगा, तभी आकाशवाणी हुई कि ‘भगवान् जगन्नाथ शीघ्र ही दारु-रुप में प्रकट होंगे ।’ इस पर वह खुश होकर लौटा ।
कुछ समय पश्चात् ही इन्द्रद्युम ने पुरी के समुद्र तट पर टहलते हुए समुद्र में काष्ठ के विशाल टुकड़े को तैरते देखा तो उसे आकाशवाणी याद आ गई । उसने तत्काल निश्चय किया कि इस लकड़ी से वह भगवान् का विग्रह निर्मित कराएगा । उसी समय भगवान् की आज्ञा से विश्वकर्मा बढ़ई के रुप में वहाँ आए और राजा से कहा कि वे भगवान् का विग्रह बनाना चाहते हैं ।
राजा इन्द्रद्युम के लिए स्थिति ‘नेकी और पूछ-पूछ’ वाली हो गई । उसने तुरन्त अनुमति दे दी । तब बढ़ई ने शर्त रखी कि वह एकान्त में विग्रह का निर्माण करेंगे । कार्य के दौरान कोई भी उनके पास आया तो वे काम बन्द कर देंगे । इन्द्रद्युम शर्त मान गया । गुण्डिचा नामक स्थान पर विग्रह बनाने का कार्य आरम्भ हुआ । कुछ दिनों पश्चात् इन्द्रद्युम को बढ़ई की भूख-प्यास की चिन्ता हुई और वह उसका हाल जानने गुण्डिचा चला गया । जैसे ही, वह बढ़ई के सामने पहुँचा, बढ़ई के रुप में विश्वकर्मा अपनी शर्तानुसार अन्तर्धान हो गए । परिणामस्वरुप भगवान् जगन्नाथ, दाऊ बलराम और सुभद्रा के विग्रह अधूरे रह गए । उन्हें देख राजा इन्द्रद्युम चिन्तित हो गया कि अधूरे विग्रह कैसे प्रतिष्ठित होंगे ? तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान् इसी रुप में स्थापित होना चाहते हैं, अतः विग्रहों को अलंकृत तथा प्रतिष्ठित करो । तब इन्द्रद्युम ने विशाल मन्दिर बनवा कर तीनों विग्रहों को स्वर्णाभूषणों से अलंकृत एवं श्रृंगार करने के पश्चात् धूमधाम से प्रतिष्ठित किया ।
भगवान् जगन्नाथ ने मन्दिर निर्माण के समय राजा इन्द्रद्युम को बताया था कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से अत्यधिक प्रेम है । इसलिए वे वर्ष में एक बार वहाँ जरुर जाएँगे । स्कन्द-पुराण के उत्कल खण्ड में आए इस आख्यान के अनुसार राजा इन्द्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की । इसके अन्तर्गत ही इस दिन रथयात्रा आरम्भ हुई ।