हमारे यहां चार तीर्थस्थलचार धाम के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ये हैं- बद्रीनाथ, द्वारिका, रामेश्वरम्और जगन्नाथपुरी।जगन्नाथपुरीमें भगवान जगन्नाथ की पूजा होती है। भगवान जगन्नाथ को दारुब्रह्मव काष्ठब्रह्मभी कहा जाता है। भगवान का यह विग्रह दारु अथवा काष्ठ से बनाया जाता है। जिस वर्ष दो आषाढ पडते हैं, भगवान का पुराना काष्ठ-कलेवर बदल कर नव काष्ठ-कलेवर में प्राण-प्रतिष्ठा करके उन्हें रत्नवेदीपर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। वर्ष में दो आषाढ कम-से-कम आठ और अधिक से अधिक उन्नीस वर्ष में पडते हैं। गत शताब्दी में कुल छह बार भगवान को नव-कलेवर प्राप्त हुए। प्राचीन कलेवर का दाह-संस्कार मंदिर-परिसर के भीतर एक निर्धारित स्थान पर किया जाता है। इस स्थान को कोइलीबैकुण्ठ कहते हैं। नव-कलेवर का निर्माण चैत्र शुक्ल दशमी को प्रारम्भ होता है। दयितापति(प्रधान पुजारी) दलबलके साथ काटकपुरदेउलीमंडप नामक स्थान पर जाता है और वहां से नीम का वृक्ष कटवा कर पुरी लाता है। पहले यह वृक्ष नृसिंह मंदिर में रखा जाता है। उसके बाद श्री मंदिर जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। यहां विश्वकर्मा मंडप में निंबकाष्ठसे भगवान जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा के विग्रहोंका निर्माण होता है। ज्ञातव्य है कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जी पुरी में भगवान जगन्नाथ के रूप में विद्यमान हैं। उनके साथ अग्रज बलराम और अग्रजा सुभद्रा यहां त्रिमूर्ति के रूप में विराजमान हैं।
भगवान जगन्नाथ के रथ का निर्माण लकडी से होता है। लकडी दशपल्लाजंगल से लाई जाती है। भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नन्दिघोष है। इसे चक्रध्वज,गरुडध्वजऔर कपिध्वजभी कहते हैं। इसमें जुते घोडों के नाम शंख, बलाहक,श्वेत एवं हरिदाश्वहैं। रथ के सभी घोडे श्वेत वर्ण के होते हैं। इस रथ के रक्षक नृसिंह भगवान हैं। बलराम के रथ का नाम तालध्वजहै। इसे बहलध्वजभी कहते हैं। रथ के सभी घोडे कृष्ण वर्ण के होते हैं और उनके नाम तीव्र, घोर, दीर्घाश्रमएवं सुवर्णनाभहैं। रथ के रक्षक वासुदेव हैं। सुभद्रा के रथ का नाम दर्पदलनहै। इसे पद्मध्वजभी कहा जाता है। इसकी घोडिया भूरा रंग की होती हैं और उनके नाम रोचिका,मोचिका,जिता एवं अपराजिता है। रथ की रक्षिकाजयदुर्गाहैं।
रथयात्रा समारोह प्रतिवर्ष आषाढ शुक्ल द्वितीया से प्रारम्भ होकर आषाढ शुक्ल दशमी को समाप्त होता है। भगवान जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा के रथों को आषाढ शुक्ल प्रतिपदा को सुसज्जित करके सिंह द्वार के सामने अगल-बगलखडा कर दिया जाता है। रथ का निर्माण पुरी राजभवन के सामने होता है। इस स्थान को रथ खडा कहते हैं। रथयात्रा को घोष-यात्रा अथवा गुण्डिचायात्रा भी कहा जाता है। रथयात्रा से दो सप्ताह पूर्व जेठ पूर्णिमा को तीनों प्रतिमाओं को स्नान कराया जाता है। इसके लिए इन्हें रत्नवेदीसे उठाकर स्नान-मंडप में लाया जाता है। स्नान-मंडप तीस फीट ऊंचा है। प्रत्येक मूर्ति को 108घडों से स्नान कराया जाता है। अति स्नान के कारण देवगण रुग्ण हो जाते हैं। 15दिनों तक विभिन्न जडी-बूटियों से उनकी चिकित्सा की जाती है। इन दिनों देव विग्रहोंका दर्शन जनता नहीं कर पाती है। देवगणोंको जडी-बूटियों का भोग लगाया जाता है। इस कर्मकाण्ड को स्नान पूर्णिमा कहते हैं।
रथयात्रा के दिन देव प्रतिमाओं को गाजे-बाजेके साथ रत्नवेदीसे उठाकर रथ पर स्थापित किया जाता है। इस कर्मकाण्ड को पहन्डिविजय कहते हैं। सेवक लोग मूर्तियों को इस प्रकार लाते हैं कि दर्शकों को ऐसा लगता है, जैसे मूर्तियां स्वयं चलकर आ रही हैं। मूर्तियों के रथ पर विराजमान होने के बाद पुरी के गजपति महाराज पालकी पर चढकर राजभवन से सिंहद्वार स्थित रथ तक आते हैं। वे रथ पर चढते हैं और सोने की मूठ वाली झाडू से रथ की सफाई करते हैं। इसे छेरा पहरा कहा जाता है। छेरा पहरा के बाद रथयात्रा का क्रम प्रारम्भ होता है। श्रीमंदिरसिंहद्वार से गुण्डिचामंदिर की दूरी तीन किलोमीटर है। इस दूरी को तय करने में लगभग 24घण्टे लग जाते हैं। रथ को रोककर लोग पूजा करते हैं। फूल-मालाएं चढाते हैं। रथारूढदेव प्रतिमाओं को नमन करते हैं, साष्टांग दण्डवत करते हैं। रथ खींचने वालों की संख्या 4000से ऊपर होती है। रथयात्रा अपराह्न चार बजे से प्रारम्भ होती है। गुण्डिचामंदिर पहुंचने के बाद मूर्तियां को रथों से उतार कर मंदिर में रख दिया जाता है। रथयात्रा के तीसरे दिन लक्ष्मी देवी भगवान जगन्नाथ के दर्शन हेतु गुण्डिचामंदिर आती हैं। उनका आगमन गाजे-बाजेके साथ शोभायात्रा के रूप में होता है। भगवान जगन्नाथ के सेवक लक्ष्मी जी को आते देखकर दरवाजा बंद कर लेते हैं। इस बात से रुष्ट होकर लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ के रथ के एक भाग को तोड देती हैं। इस कर्मकाण्ड का नाम हेरापंचमी है।
अन्तत:गुण्डिचामंदिर से भगवान जगन्नाथ की प्रतियात्राशुरू होती है। इसे बाहुडायात्रा कहते हैं। भगवान जगन्नाथ सात दिनों तक गुण्डिचामंदिर में प्रवास करते हैं। इसके बाद वे श्रीमंदिरलौटते हैं। भगवान की वापसी यात्रा वैशाख शुक्ल दशमी को प्रारम्भ होती है। श्रीमंदिरलौटने पर तीनों मूर्तियों को रत्नवेदीपर स्थापित कर दिया जाता है। इसके बाद नियमित देवपूजा,देवदर्शनऔर भोग का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।