धन्ना जी जाती के जाट थे। इन्होंने विद्याध्ययन या शास्त्रश्रवण बिलकुल नहीं किया था। परन्तु बहुत छोटी अवस्था में ही इनके हृदय में प्रेमबीज अंकुरित हो उठा था और वह संत सुधा समागम से जीवनी शक्ति भी पा चुका था। धन्ना जी के पिता खेती का काम करते थे। पढ़े लिखे न होने पर भी उनका ह्र्दय सरल और श्रद्धासम्पन्न था। वे यथाशक्ति संत महात्माओं और भक्तों की सेवा किया करते थे।
जिस समय धन्ना जी की अवस्था पांच साल की थी, एक भगवद्भक्त ब्राह्मण साधु उनके घर पर पधारे। उन्होंने अपने हाथ से कुँए का जल खींचकर स्नान किया, तदनन्तर संध्यावन्दनादि से निवर्त्त होकर अपनी झोली से श्रीशालग्राम जी की मूर्ति निकाल कर उसकी षोडशोपचार से पूजा की और उसके भोग लगाकर स्वयं भोजन किया। बालक धन्ना यह सब कौतुक से देख रहे थे। बालक का सरल, शुद्ध हृदय था ही; उसे भी इच्छा हुई की यदि उसके पास भी ऐसी ही एक मूर्ति होती तो वह् भी उसकी इसी तरह पूजा किया करता।
उन्होंने स्वाभाविक ही मन की प्रसन्न करने वाली मीठी वाणी से ब्राह्मणदेव के पास जाकर वैसी ही एक मूर्ति के लिए याचना की पहले तो ब्राह्मण देव ने कुछ ध्यान न दिया, परन्तु जब धन्ना जी बहुत गिड़गिड़ाने लगे तो वह उन्हें एक शालिग्राम जी की मूर्ति देकर कहने लगे- ‘बेटा! ये तुम्हारे भगवान् हैं, तुम इनकी पूजा किया करो। देखो, इनके भोग लगाये बिना कभी भोजन न करना।’ ब्राह्मण देवता तो यह कहकर चले गए। धन्ना जी को बात लग गयी। उनकी मानो यही गुरुदीक्षा हुई।
अब धन्ना जी के आनंद का पार नहीं रहा। वे सूर्योदय से पूर्व उठकर पहले स्वयं स्नान करके अपने भगवान को स्नान कराते, चंदन लगाते, तुलसी चढ़ाते और पूजा-आरती करते। माता जब खाने को बाजरे की रोटी देती तो वे उसे भगवान् के आगे रखकर आँख मूंद लेते और बीच बीच में आँख खोल कर देख लेते की भगवान् ने भोग लगाना शुरू किया कि नहीं।
जब बहुत देर हो जाती और भगवान् भोग न लगाते तो अनेक प्रकार से प्रार्थना और निहोरा करते। इतने पर भी जब भगवान् भोग न लगाते तो निराश होकर यह समझते की भगवान् मुझसे नाराज़ हैं। जब वे रोटी नहीं खाते तो मैं कैसे खाऊं? यह सोचकर वे रोटियों को दूर फेंक देते। इस तरह कई दिन बिना अन्न जल लिए बीत गए। अब उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया और चलने-फिरने की भी शक्ति नहीं रही। धन्ना जी के नेत्रों से, इस मार्मिक दुःख के कारण कि भगवान् मेरी रोटी नहीं खाते, सर्वदा आंसुओं की धारा बहने लगी।
सरल बालक की बहुत कठिन परीक्षा हो चुकी। भगवान् का आसन हिल उठा। भक्त के दुःख से द्रवित होकर भगवान् उसके प्रेमाकर्षण से अपूर्व मनमोहिनी मूर्ति धारण कर उसके सामने प्रकट हुए और उस ‘भक्त की रोटी का बड़े प्रेम से भोग लगाने लगे। जब भगवान् आधी से अधिक रोटी खा चुके तो धन्ना ने भगवान् का हाथ पकड़कर कहा- ‘भगवन् ! इतने दिनों तक तो पधारे ही नहीं, अब आज आये हो तो सारी रोटी अकेले ही उड़ा जाओगे? तो क्या आज भी मैं भूख मरुंगा? क्या मुझे ज़रा सी भी न दोगे?’
बालक भक्त के सरल-सुहावने वचन सुनकर भगवान् ज़रा मुस्कुराये और उन्होंने बची हुई रोटी धन्ना जी को देदी। इस रोटी के अमृत से भी बढ़कर स्वाद का वर्णन शेष-शारदा भी नहीं कर सकते। भक्तवत्सल करूणानिधि कौतुकी भगवान् अब प्रति दिन इसी प्रकार अपनी जन्मनहरण रूपमाधुरि से धन्ना जी का मन मोहने लगे।
मनुष्य जब तक इस मनमोहिनी मूर्ति का दर्शन नहीं कर पाता तभी तक वह अन्य विषयों में आसक्त रहता है। जिसे एक बार भी इस रूप छटा की झांकी करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया उसे फिर कोई और बात नहीं सुहाती। अब धन्ना जी की भी यही दशा हुई। यदि एक क्षण के लिए भी वे मनमोहन को अपनी आँखों के सामने या हृदयमंदिर में न देख पाते तो तुरंत मूर्छित होकर गिर पड़ते। इसी से भगवान् को धन्ना जी के साथ या उनके हृदय मंदिर में सदा-सर्वदा रहना पड़ता।
अब धन्ना जी कुछ बड़े हो गए, इससे माता ने उन्हें गौ दुहने का काम सौंप दिया। कई गायें थीं, धन्ना जी को दोनों समय दुहने में बड़ा कष्ट होता। एक दिन भगवान् ने प्रकट होकर कहा की – ‘भाई! तुम्हें अकेले इतनी गायें दुहने में बड़ा कष्ट होता होगा, तुम्हारी गायें मैं दुह दिया करूँगा।’ सुरमुनिवन्दित सकलचराचरसेव्य अखिल्लोकमहेश्वर भगवान् अपने बालक भक्त के साथ रहकर उसकी सेवा करने लगे।
एक दिन धन्ना जी के वे ब्राह्मण गुरु उसके घर पर आये और पूछा- ‘क्यों, ठाकुर जी की पूजा करते हो कि नहीं?’
धन्ना ने कहा–‘महाराज! आपने तो अच्छे भगवान् दिए। कई दिन तक तो दर्शन ही नहीं दिए, स्वयं भूखे रहे और मुझे भी भूखा मारा। अंत में एक दिन दर्शन देकर सारी ही रोटी चट करने लगे, बड़ी कठिनाई से मैंने हाथ पकड़कर आधी रोटी अपने लिए रखवाई। परंतु महाराज! हैं वे बड़े प्रेमी। हर समय मेरे साथ रहते हैं और दोनों समय मेरी गायें दुह देते हैं। वह अब तो मुझे बहोत ही प्यारे हैं, मेरे प्राण तो उन्हीं में बस्ते हैं।’
ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित होकर पूछा की ‘तुम्हारे भगवान् हैं कहाँ?’ धन्ना ने कहा की ‘मेरे पास ही तो ये खड़े हैं, क्या आपको नहीं दीखते?’ यह सुनकर ब्राह्मण को बड़ा दुःख हुआ। इस पर धन्ना जी ने भगवान् से ब्राह्मण को दर्शन देने के लिए भी प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना पर संतुष्ट होकर भगवान् ने धन्ना को ब्राह्मण की गोद में बैठकर अपने पवित्रतम शरीर के स्पर्श से उसे पवित्र करके दिव्य नेत्र प्रदान करने की आज्ञा दी। धन्ना जी के ब्राह्मण की गोद में बैठते ही ब्राह्मण को भगवान् के दर्शन हो गए। वह कृत्कृत्य हो गया, सदा के लिए उसके समस्त बंधन टूट गए।
भगवान तो बस प्रेम के भूखे है, उन्हें प्रेम के अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए।