गुरुजी एक दिव्य शक्ति है जो कि मानवता को आशीर्वाद और ज्ञान देने के लिए पृथ्वी पर आए थे।
गुरु जी का जन्म पंजाब के मलेरकोटला जिले के डूगरी गाँव में, 7 जुलाई 1954 को सूर्योदय के समय हुआ था। डुगरी कृषि प्रधान ग्राम था और गुरुजी का प्रारम्भिक जीवन डूगरी के आसपास ही बीता, वहीं स्कूल गए, वहीं कॉलेज गए, और वहीं से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। लोग कहते हैं कि उनमें बचपन से ही आध्यात्मिकता की झलक दिखने लगी थी। गुरु जी अक्सर खेती में अपने पिता की सहायता किया करते थे। जब भी वह ऐसा करते थे तो, उनके खेत की पैदावार आस पास के खेतों से कई गुना अधिक होती थी। गुरुजी के आशीर्वाद से सैकड़ों हज़ारों लोगो का दु:ख-दर्द कम होने लगा था।
गुरुजी अधिकांशतः निकट ही स्थित संत सेवा दासजी के डेरे पर मिलते थे, हालाँकि उनके परिवार के सदस्यों को यह पसंद नहीं था, वो चाहते थे कि गुरूजी अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान दें। इसलिए गुरुजी अपने पिता की इच्छा पूर्ति के लिए पढ़ते रहे, जो अन्य सामान्य अभिवावकों की तरह ही चाहते थे कि उनका पुत्र एम ए की डिग्री ले। गुरुजी ने अंग्रेजी और अर्थ शास्त्र में दो उपाधियाँ प्राप्त भी की।
गुरुजी की आध्यात्मिक प्रवृत्ति को रोकने के लिए उनको कभी कभी कमरे में बंद कर दिया जाता था। फिर भी गुरुजी डेरे पर संतों के साथ बैठे हुए मिलते थे, जहाँ पर बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी आते थे। उस समय भविष्यद्रष्टा संत लोगों को सजग करते थे कि गुरुजी को अकेला छोड़ दें क्योंकि वह "तीनों लोकों के स्वामी" हैं।
कुछ समय के बाद गुरुजी ने इस संसार में अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए घर छोड़ दिया। वह अक्सर अपने किसी परिचित के घर पर प्रकट हो जाते थे, कुछ दिन रहते थे और फिर या तो चल पड़ते थे या कई दिनों के लिए लुप्त हो जाते थे। इस प्रकार के वाकयों के बाद उनके माता पिता समझ गए कि उनका पुत्र कोई साधारण पुरुष नहीं है। उनकी माँ अन्य भक्तों की भांति उनको "गुरुजी" कहकर संबोधित करती थीं और उन्हें सत्संगों में अक्सर गुरुजी के पैर छूते हुए देखा जा सकता था।
यदि कोई भक्त कभी उनका नाम पूछ भी लेता था, तो गुरुजी उसको एक छोटा किन्तु अर्थसंगत उत्तर देते थे, कि महापुरुषों के कोई नाम नहीं होते। इस कथन का अभिप्राय मात्र इतना होता था कि उनके व्यक्तित्व के समान स्वयं ब्रह्म उनमें ही समाहित है, दोनों एक ही हैं। नाम के लिए जिस भिन्नता की आवश्यकता होती है, उससे वह कहीं ऊपर आ चुके है। एक निजी मानव शरीर होते हुए भी वह व्यक्तित्वहीन और अंतर्यामी थे।
तत्पश्चात गुरूजी के उस शरीर का उद्देश्य मानवता को उसके दुखों और कष्टों से छुटकारा दिलाना हो गया। लोग, बड़ी संख्या में गुरुजी के पास अपनी समस्याओं से मुक्त होने के लिए पहुंचने लगे - अधिकांशतः आर्थिक, गृहस्थी, व्यवसाय और व्यापार, कर्मजनित रोगों से संबंधित होती थीं। शीघ्र ही उनकी ख्याति समूचे पंजाब में फैल गयी और लोग उनको ढूंढने लगे।
गुरुजी सदा कहते रहे कि "असल चीज़ तो कोई मंगदा नहीं"। वह तो दिव्यता के मूर्त रूप थे और उनकी इच्छा थी कि लोग उनके पास प्रेम के लिए, केवल प्रेम के लिए आएं। नम्रतापूर्वक समर्पित प्रेम से वह अकल्पनीय, असंभव वस्तुएँ तक देने में सक्षम थे। गुरुजी तो दाता थे, उनकी न कोई आशा थी न ही उन्होंने किसी से कभी कुछ ग्रहण किया।
गुरुजी विभिन्न स्थानों पर बैठने लगें - जालंधर, चंडीगढ़, पंचकूला और नयी दिल्ली सहित कई स्थानों से इन्होने सत्संगों की नदी, पवित्र गंगा की भांति प्रवाहित कर दी। इन बंजर, भौतिकवाद से तप्त प्रदेशों में ख्याति मिलने लगी। यही स्थान थे जहाँ पर उनका आशीर्वाद लेने के लिए भारत और दुनिया के अन्य भागों से भी दूर-दूर से लोग आते थे। गुरुजी के सत्संग में चाय और लंगर प्रसाद दिया जाता था जिनमें गूरूजी का विशेष दिव्य आशीर्वाद और दिव्य शक्ति होती थी।
भक्तों को गुरूजी की कृपा का अनुभव विभिन्न रूपों में हुआ: असाध्य रोग दूर हुए, और सारी सांसारिक समस्याए - आर्थिक, मानसिक, शारीरिक, कानूनी आदि दूर हुईं। कुछ भक्तों को तो देवताओं के दिव्य दर्शन भी हुए। गुरुजी के लिए कुछ भी असंभव नहीं था, गुरुजी के दरवाजे सभी लोगों के लिए समान रूप से खुले रहते थे - चाहे वह उच्च या निम्न, अमीर या गरीब, पड़ोसी या विदेशी हो या किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के हो।
साधारण से साधारण आदमी, और बड़े से बड़े आदमी उनके पास आशीर्वाद लेने आते थे। राजनेताओं, व्यवसायियों, नौकरशाहों, सशस्त्र सेवा कर्मियों, डॉक्टरों, और अन्य व्यवसायिओं की लाईन लगी रहती थी। सब को उनकी ज़रूरत थी और गुरुजी ने बिना किसी भेदभाव के सबको समान रूप से आशीर्वाद दिया। जो लोग उनके पास बैठते थे, उनके चरण छूते थे, उन्हें भी उतना ही फ़ायदा मिलता था जितना कि विश्व के किसी भी कोने में बैठे श्रद्धालुओं को।
स्वयं दिव्यता से परिपूर्ण, गुरूजी के लिए सब एक समान थे और अपने भक्तों को भी ऐसा ही पालन करने को कहते थे। उन्होंने भक्तों को शंकाओं से उत्पन्न, व्यर्थ के अंधविश्वास एवं निराधार परम्पराओं को त्यागने को कहा। गुरूजी का कहना था कि सब ईश्वर से प्रेम करें, सब धर्म समान हैं और उन सबका मूल एक ही है। एक परमेश्वर है और मानवता का एकमात्र स्वरूप विश्व बंधुत्व का है। अतः, इस तर्क पर, जाति और मत के आधार पर कोई अंतर संभव नहीं हैं।
ज्योतिष और अज्ञानता पर आधारित उपाय उनको अस्वीकार थे। वह अपने भक्तों को अपने कर्मों को समाप्त करने में सहायता करते थे, यह जानते हुए भी कि उनके शरीर को हानि भी होती है वह अधिक बुरे कर्म अपने पर अंतरित कर लेते थे। उनके और उनके अनुयायियों के लिए, संगत, उनके भक्तों की सभा, सर्वोच्च थी।
बदले में, उनको अपने अनुयायियों से मात्र इतनी अभिलाषा थी कि वह अच्छा आचरण करें, किसी की भी निंदा न करें, सबकी सहायता करें और किसी की भी हानि न करें। यद्यपि गुरूजी पूर्व कर्मों की आंधी में से अपने भक्तों को निकाल कर उनको जीव और आत्मा का दर्शन कराते थे, वह उनको सदा सुकर्म और सदाचार करते हुए अध्यात्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देते थे।
सबसे महत्वपूर्ण बात थी भक्त का सम्पूर्ण समर्पण और गुरुजी में अडिग आस्था, विश्वास। गुरुजी दाता थे, उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं लिया और न ही लेने की उम्मीद रखी। गुरुजी कहते थे "कल्याण कर दित्ता," और भक्त को सदा उनका आशीर्वाद प्राप्त होता था। वो ये भी कहते थे कि मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ हमेशा रहेगा केवल इस जन्म के लिए नहीं, गुरु जी कहते थे कि उनका आशीर्वाद भक्त के साथ उसके आत्मबोध (मोक्ष प्राप्ति) तक रहेगा।
गुरुजी ने कभी कोई प्रवचन नहीं किया, कोई रस्म निर्धारित नहीं की, फिर भी उनका संदेश भक्त तक कैसे पहुँच जाता था, यह केवल भक्त ही बता सकता है। इस विशेष "सम्बंध" से भक्त को न केवल खुशी और स्फ़ूर्ति मिलती थी, बल्कि इसकी वजह से भक्त में एक गहरा बदलाव भी आता था। गुरूजी सदा व्यावहारिक आध्यात्मिकता के कर्ता थे, जैसा वह अक्सर कहा भी करते थे। उनके सन्देश उन शबदों के माध्यम से प्रसारित होते थे जो उनकी सभा में बैठे हुए भक्तों के हृदय को भावविभोर कर देते थे।
अतः अनुयायी, गुरु शिष्य में स्थापित पवित्र सम्बन्ध बनने पर, उनके सन्देश सार्वजनिक या निजी रूप में ग्रहण कर लेते थे। यह पावन रिश्ता आपसी सम्बन्ध का मूल आधार था। वह भक्त का जीवन एक ऐसे स्तर तक उठा देते थे जहाँ आनंद, तृप्ति और शांति एक साथ आसानी से मिल जाते हैं। स्वतः मार्गदर्शक बन जाते थे जो न केवल अनुयायी को उसका वास्तविक लक्ष्य बता देते थे, वह उसको उसकी वर्तमान स्थिति से भी अवगत करा देते थे।
31 मई 2007 को गुरुजी ने महामाधि ली। गुरुजी के चारो ओर दिव्य सुगंध रहती थी, मानों गुलाब के फूल खिले हो। आज भी उनकी खुशबू उनके भक्तों को गुरूजी के होने का अहसास दिलाती है। एक प्रकार से यह एक शिक्षा ही थी। उन्होंने अनुयायियों को बता दिया था कि जीवन कितना क्षणभंगुर है। जिस भांति वह चले गए, उन्होंने यह पाठ सबके मनसपटल पर स्थायी तौर से छोड़ दिया।
उन्होंने अपना कोई उत्तराधिकारी नहीं छोड़ा, क्योंकि दिव्य शक्ति का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता। उनका कहना था कि भक्त को गुरूजी से सीधे जुड़ना चाहिए, और वो भी प्रार्थना और ध्यान के माध्यम से। गुरुजी का एक मंदिर अति सुन्दर बाग में स्थित, सबको मंत्रमुग्ध करने वाला, यह पवित्र "बड़ा मंदिर" उनकी आध्यात्मिक धरोहर है। यह मंदिर दक्षिण दिल्ली में भाटी माईन्स के पास है। वह इतना अद्वितीय है कि उसे पृथ्वी पर स्वर्ग ही कहा जा सकता है। साथ ही इतना शक्तिशाली भी है कि आशीर्वाद के लिए मात्र उसके निकट से गुजरना ही पर्याप्त है।
आज, जब गुरुजी अपने नश्वर रूप में नहीं है, उनका आशीर्वाद पहले ही की तरह प्रभावी और शक्तिशाली है - और उन सब पर भी उनकी समान अनुकम्पा है जो उनसे कभी मिले ही नहीं।