एक संत के पास सुशांत नामक एक युवक आया। उसने कुछ देर तक धर्म चर्चा की फिर थोड़े संकोच के साथ कहा-कृपया मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। संत ने पूछा- शिष्य बनकर क्या कर
ोगे? उसने कहा-
आपकी तरह साधना करूंगा। संत मुस्कराए और बोले- वत्स, जाओ सब कुछ भुलाकर जीवनयापन के लिए अपना कर्म करते रहो। सुशांत चला गया मगर कुछ दिनों बाद फिर वापस आया। वह जीवन से संतुष्ट
नहीं था। उसने शिष्य बना लेने की अपनी मांग दोहराई।
इस बार संत ने उससे कहा-अब तुम स्वयं को भुलाकर घर-घर जाकर भिक्षा मांगो। ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का भेद भुलाकर जहां से जो ग्रहण करो उसी से
अपना गुजारा करो। सुशांत संत के आदेशानुसार भिक्षा मांगने लगा। वह हमेशा नजरें नीची किए रहता। जो मिल जाता उसी से संतोष करता। कुछ दिनों के बाद फिर वह संत के पास आया। उसे आशा थी कि इस बार संत उसे अवश्य अपना शिष्य बना लेंगे। इस बार संत ने कहा-जाओ नगर में अपने सभी शत्रुओं और विरोधियों से क्षमा मांग कर आओ। शाम को घर-घर घूमकर सुशांत वापस आया और संत के सामने झुककर बोला-प्रभु अब तो इस नगर में मेरा कोई शत्रु ही नहीं रहा। सभी मेरे प्रिय और अपने हैं और मैं सबका हूं। मैं किससे क्षमा मांगूं। इस पर संत ने उसे गले लगाते हुए कहा-अब तुम स्वयं को भुला चुके हो। तुम्हारा रहा-सहा अभिमान भी समाप्त हो चुका है। तुम सच्चे साधक बनने लायक हो गए हो। अब मैं तुम्हें
अपना शिष्य बना सकता हूं। यह सुनकर सुशांत की खुशी का िकाना न रहा।