एक आश्रम में दो संत रहते थे। दोनों हर समय ईश्वर की आराधना में लगे रहते थे। लेकिन फिर भी दोनों में एक प्रसन्न रहते थे और दूसरे अत्यंत दुखी। इस कारण दोनों के नाम ही सुखी व दुखी संत पड़ गए थे। लोग इनके पास परामर्श लेने के लिए तो आते ही थे साथ ही यह भी देखते थे कि एक जैसे ही कार्य करने के कारण भी दोनों में एक सुखी हैं और एक दुखी।
दोनों ही लोगों की समस्याओं के समाधान
भी बताते थे। हैरानी इस बात की थी कि दुखी संत के
समाधान भी सही और प्रेरणादायक होते थे।
दुखी संत अपने दुख का कारण जानना चाहते थे।
यह जानने की इच्छा लिए वह सुखी संत के साथ
अपने वयोवृद्ध गुरु के पास पहुंचे। दुखी संत
बोले, `गुरुजी, मेरा नाम तो सात्विक था लेकिन लोगों ने मेरे चेहरे पर दुख के भावों को देखकर मुझे दुखी संत की संज्ञा दे दी।` इस पर सुखी संत बोले, `मेरा नाम भी पहले सत्गुण था। लेकिन मेरे चेहरे पर प्रसन्नता के
भावों को देखकर मुझे सुखी नाम दे दिया गया।`
दुखी संत बोले, `हम दोनों की सभी गतिविधियां एक जैसी हैं लेकिन फिर भी मैं दुखी रहता हूं और सुखी खुश। भला ऐसा क्यों?` गुरु दोनों की बात सुनकर मुस्कराते हुए बोले, `दुखी बेटा, दरअसल एक जैसे काम करते हुए भी सुख और दुख के भाव अलग-अलग हो सकते
हैं। उसके पीछे कारण यह कि जो व्यक्ति हमेशा हर समस्या और दुख का सामना शांत व निश्चल मन से करता है, उसका मन प्रसन्न रहता है क्योंकि वह
जानता है कि उसकी आंतरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हैं कि कोई भी विकराल समस्या या दुख उनके आगे हर ही नहीं सकता। यही भावना उसे प्रसन्न रखती है। पर यदि व्यक्ति का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है तो वह दुखी हो जाता है। आत्मविश्वास की मजबूत डोर ही व्यक्ति को हर परिस्थिति में सुखी बनाए रखती है।`