‘‘हाँ, मैं ईश्वर को ीक वैसे ही देख सकता हूँ, जैसे मैं तुम्हें देख सकता हूँ। कोई भी ईश्वर को वैसे ही देख सकता है, जैसे मैं तुम्हें देख सकता हूँ... पर कौन उन्हें देखना चाहता है? लोग अपने बीवी-बच्चों के लिए आँसू बहाते हैं... अपनी जमीन-जायदाद की चिंता करते हैं... पर ईश्वर के लिए कौन रोता है? जो भी उनके लिए भक्तिभाव से रोएगा, ईश्वर उसे अवश्य दिखेंगे...।’’ - स्वामी रामकृष्ण परमहंस
कुछ ऐसा ही था एक गुरु का उसके शिष्य से पहला वार्तालाप जिसने उनके शिष्य को बहुत सादगी से उसके जीवन का उद्देश्य समझा दिया । यह गुरु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य थे नरेंद्र नाथ । इस गुरु-शिष्य संबंध का प्रारंभ इन दोनों की इस एक मुलाकात से हुआ था, जिसने नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनने के लिए अग्रसर किया !शिष्य ऐसा था जो हर तथ्य को वास्तविकता की कसौटी पर कसने के लिए अपने गुरु से कौतुहल की पराकाष् ा तक वाद-विवाद करता था । वहीं गुरु भी कुछ ऐसे थे, जिन्होंने हमेशा ही धैर्य व प्रेम से अपने शिष्य के हर प्रश्न का, हर जिज्ञासा का निवारण किया । सामाजिक जीवन की उथल-पुथल से विचलित व उद्विग्न शिष्य को भक्ति व परम ज्ञान के अथाह संसार की राह दिखाई । भारतीय दर्शन के इस अद्भुत गुरु-शिष्य संबंध का यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसने इस परंपरा की पवित्रता की पराकाष् ा को छुआ है। शायद यही वजह है कि अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के केवल पाँच वर्षों के मार्गदर्शन ने एक अतृप्त व अधैर्यवान शिष्य को एक ऐसे गंभीर व परम ज्ञानी व्यक्तित्व में बदल दिया, जिसने पूरे विश्व में भारतीय दर्शन की उत्कृष्टता का डंका बजाया ।
अध्ययन के दौरान नरेंद्र अकसर बेहद विचलित हो जाते थे । एक ओर ईश्वर की प्राप्ति का महान उद्देश्य था, वहीं दूसरी ओर उस परिवार की चिंता, जिसका एकमात्र आसरा वे खुद थे । अपनी विधवा माँ भुवनेश्वरी देवी और दो बहनों को त्याग कर संन्यास अपनाने के इरादे से आए नरेंद्र को अपनी परिवार की चिंता रह-रहकर सताती थी । चिंता भी वाजिब थी। वे परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से ऐसे कैसे मुख मोड़ लेते ? उनकी इस चिंता का केवल एक हल था, जो केवल उनके गुरु के ही पास था । इसलिए एक दिन नरेंद्र ने अपने गुरु से प्रार्थना की कि वे उसे भी काली माँ के दर्शन कराएँ जिससे वह माता से अपने परिवार का संरक्षण माँग ले । गुरु ने उसे माता के मंदिर भेजा और नरेंद्र को माँ काली के दर्शन हुए । माँ के सामने नरेंद्र के मुँह से निकला ‘‘ हे माँ, मुझे ज्ञान और भक्ति दो । ’’ लौटकर आने पर गुरु ने पूछा कि ‘‘ नरेंद्र, क्या तुमने माँ काली से अपने परिवार के लिए भोजन माँगा ? ’’ नरेंद्र ने कहा ‘‘नहीं गुरुदेव, मैंने उनसे ज्ञान और भक्ति माँगी ।’’ इस पर गुरुदेव ने उन्हें डाँटते हुए कहा कि ‘‘मूर्ख, फिर से जा और अपने परिवार के लिए भोजन माँग।’’ नरेंद्र तीन बार गया और तीनों बार उसने ज्ञान और भक्ति ही माँगी । धन्य है ऐसे गुरु और धन्य है ऐसे शिष्य, जो पत्थर को तराश कर हीरा बना दे