किसी शहर में एक रब्बाई (यहूदी पुजारी) अपनी गुणवती पत्नी और दो प्यारे बच्चों के साथ रहता था. एक बार उसे किसी काम से बहुत दिनों के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा. जब
वह दूर था तब एक त्रासद दुर्घटना में उसके दोनों पुत्र मारे गये.
ऐसी दुःख की घड़ी में रब्बाई की पत्नी ने खुद को बड़ी मुश्किल से संभाला. वह बहुत हिम्मती थी और ईश्वर में उसकी आस्था अटूट थी. लेकिन उसे यह चिंता थी कि रब्बाई के लौटने
पर वह उसे यह दुखद समाचार किस प्रकार देगी. रब्बाई स्वयं बहुत आस्थावान व्यक्ति था लेकिन वह दिल का मरीज़ था और पूर्व में अस्पताल में भी भर्ती रह चुका था. पत्नी को यह
आशंका थी कि वह यह सदमा नहीं झेल पायेगा.
पति के आगमन की पूर्व संध्या को उसने दृढ़तापूर्वक प्रार्थना की और शायद उसे अपनी समस्या का कोई समाधान मिल गया.
अगली सुबह रब्बाई घर पहुँच गया. बड़े दिनों के बाद घर वापसी पर वह पत्नी से गर्मजोशी से मिला और लड़कों के बारे में पूछा.
पत्नी ने कहा, "उनकी चिंता मत कीजिये. आप नहा-धोकर आराम करिए".
कुछ समय के बाद वे भोजन करने के लिए बै े. पत्नी ने उससे यात्रा के बारे में पूछा. रब्बाई ने उसे इस बीच घटी बातों की जानकारी दी और कहा कि ईश्वर की दया से सब ीक
हुआ. फिर उसने बच्चों के बारे में पूछा.
पत्नी कुछ असहज तो थी ही, फिर भी उसने कहा, "उनके बारे में सोचकर परेशान मत होइए. हम उनकी बात बाद में करेंगे. मैं इस वक़्त किसी और उलझन में हूँ, आप मुझे उसका
उपाय बताइए".
रब्बाई समझ रहा था कि कोई-न-कोई बात ज़रूर थी. उसने पूछा, "क्या हुआ? कोई बात तो है जो तुम्हें भीतर-ही-भीतर खाए जा रही है. मुझे बेखटके सब कुछ सच-सच बता दो और
हम साथ बै कर ईश्वर की मदद से उसका हल ज़रूर निकाल लेंगे".
पत्नी ने कहा, "आप जब बाहर थे तब हमारे एक मित्र ने मुझे दो बेशकीमती नगीने अहतियात से सहेजकर रखने के लिए दिए. वे वाकई बहुत कीमती और नायाब नगीने हैं! मैंने उन
जैसी अनू ी चीज़ और कहीं नहीं देखी है. अब वह उन्हें लेने के लिए आनेवाला है और मैं उन्हें लौटाना नहीं चाहती. मैं चाहती हूँ कि वे हमेशा मेरे पास ही रहें. अब आप क्या
कहेंगे?"
"तुम कैसी बातें कर रही हो? ऐसी तो तुम नहीं थीं? तुममें यह संसारिकता कहाँ से आ गयी?", रब्बाई ने आश्चर्य से कहा.
"सच यही है कि मैं उन्हें अपने से दूर होते नहीं देखना चाहती. अगर मैं उन्हें अपने ही पास रख सकूं तो इसमें क्या बुरा है?", पत्नी ने कहा.
रब्बाई बोला, "जो हमारा है ही नहीं उसके खोने का दुःख कैसा? उन्हें अपने पास रख लेना तो उन्हें चुराना ही कहलायेगा न? हम उन्हें लौटा देंगे और मैं यह कोशिश करूंगा कि तुम्हें
उनसे बिछुड़ने का अफ़सोस नहीं सताए. हम आज ही यह काम करेंगे, एक साथ".
" ीक है. जैसा आप चाहें. हम वह संपदा लौटा देंगे. और सच यह है कि हमने वह लौटा ही दी है. हमारे बच्चे ही वे बेशकीमती नगीने थे. ईश्वर ने उन्हें सहेजने के लिए हमारे सुपुर्द
किया था और आपकी गैरहाजिरी में उसने उन्हें हमसे वापस ले लिया. वे जा चुके हैं...".
रब्बाई ने अपनी पत्नी को भींच लिया और वे दोनों अपनी आंसुओं की धारा में भीगते रहे. रब्बाई को अपनी पत्नी की कहानी के मर्म का बोध हो गया था. उस दिन के बाद वे साथ-साथ
उस दुःख से उबरने का प्रयास करने लगे.