एक बार गुरु गोविंद सिंह कहीं धर्म चर्चा कर रहे थे। श्रद्धालु भक्त उनकी धारा प्रवाह वाणी को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। चर्चा समाप्त होने पर गुरू गोविंद सिंह को प्यास लगी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- कोई पवित्र हाथों से मेरे पीने के लिए जल ले आए।
गुरू गोविंद सिंह जी का कहना था कि एक शिष्य उठा और तत्काल ही चांदी के गिलास में जल ले आया। जल से भरे गिलास को उसने गुरु गोविंद सिंह जी की ओर बढ़ाते हुए कहा-लीजिए गुरुदेव! गुरु गोविंद सिंह जी ने जल का गिलास हाथ में लेते हुए उस शिष्य की हथेली की ओर देखा और बोले- वत्स, तुम्हारे हाथ बड़े कोमल हैं। गुरु के इन वचनों को अपनी प्रशंसा समझते हुए शिष्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने बड़े गर्व से कहा- गुरुदेव, मेरे हाथ इसलिए कोमल हैं क्योंकि मुझे अपने घर कोई काम नहीं करना पड़ता। मेरे घर बहुत सारे नौकर-चाकर हैं। वही मेरा और मेरे पूरे परिवार का सब काम कर देते हैं।
गुरू गोविंद सिंह जी पानी के गिलास को अपने होठों से लगाने ही वाले थे कि उनका हाथ रुक गया। बड़े गंभीर स्वर में उन्होंने कहा- वत्स, जिस हाथ ने कभी कोई सेवा नहीं की, कभी कोई काम नहीं किया, मजदूरी से जो मजबूत नहीं हुआ और जिसकी हथेली में मेहनत करने से गांठ नहीं पड़ी, उस हाथ को पवित्र कैसे कहा जा सकता है। गुरुदेव कुछ देर रुके फिर बोले- पवित्रता तो सेवा और श्रम से प्राप्त होती है। इतना कह कर गुरुदेव ने पानी का गिलास नीचे रख दिया।