Inspiration - (किसी के सपने पूरा करने का सुख)
मैं जब छोटा था तो माँ अक्सर मुझे कहानियां सुनाया करती थी. सच्ची वाली.........
मैं शेर वाली या भेड़ वाली भी सुनता था लेकिन यदि कहानी के पात्र मेरे परिचित होते तो मुझे बड़ा मजा आता.......
एक कहानी जो मुझे आज याद आ रही है..........
एक गाँव में एक परिवार रहता था...उसमे छ बच्चे थे...दो लडकियां और चार लड़के..(रेखा, दिया, अमन, कमल, मुकेश और सुरेश)..परिवार कि आर्थिक हालत दयनीय थी....बच्चों की परवरिश भी ीक से नहीं हो पा रही थी. पिता कि कमाई इतनी अच्छी नहीं थी कि बच्चो को पढाया जा सके...भोजन की व्यस्था ही नहीं हो पा रही थी...
रेखा तीसरे नंबर कि संतान थी. उसकी उम्र जब ७ साल कि थी तभी उसने ये निर्णय लिया कि वो आगे पढाई नहीं करेगी और दिया को पढने का पूरा मौका दिया जायेगा..अमन और कमल दोनों बड़े होने के बावजूद घर से उतना मतलब नहीं रखते थे..उन्हें केवल अपने सेहत का ध्यान रहता था...वे कोशिस करके भी पढ़ नहीं पाते थे...उन्होंने ये निर्णय किया कि वो कुछ काम करंगे....और बड़े आदमी बन जायेंगे...........
इधर मुकेश कि पढने में रूचि थी किन्तु उसे भी लगता था कि अपने से छोटे भाई के लिए (सुरेश) के लिए उसे भी रेखा कि तरह त्याग करना चाहिए...........जब छोटे बच्चे त्याग कि बात करते है तो मुझे बड़ा आस्चर्य होता है कि ये दुनिया कितनी स्वार्थी है और उसे भी जायज हराने कि कोशिस करते हैं......लेकिन उन बच्चो के पास तर्क न होने पर भी उनका मासूम व्यव्हार कितना सही और अच्छा लगता है....
रेखा को जब ये पाता चला तो उसने मुकेश को समझाया कि देख भाई जीवन में बहुत सी तकलीफ आयेंगी , मैं लड़की हूँ मुझे दुसरे घर जाना है मेरे लिए पढाई इतनी जरुरी नहीं है...तू कुछ पढ़ लेगा तो छोटे को भी मदद मिलेगी और पढाके तू खर्चा भी निकाल सकता है......
सच है जब मजबुरिया आती है तो वे अपना इलाज भी खुद ही बता देती हैं ,,,,उसके लिए उम्र का बंधन नहीं होता....
छोटे भाई और बहन "सुरेश और दिया" में बालसुलभ वे सारी चंचल्ताये थी कि वे खामोश बलिदानों को समझ नहीं पाते..........(बलिदानों का ढिंढोरा नहीं पीटा जाता )...
एक दिन रेखा रोटी बना रही थी, सुरेश को काफी तेज भूख लगी थी, सुरेश दीदी के पास दौड़ता हुआ आया और रोटी कि जिद करने लगा,,,,,दीदी ने उसे रोटी दी वो चीनी कि मांग करने लगा दीदी ने दूध में थोडा सा आटा डाल दिया और बोली खा लो....सुरेश को मी ा न लगा उसने शिकायत कि तो दीदी ने कहा कि दुकान वाला अच्छी चीनी नहीं देता....उससे बात कर लेना...मुकेश सब समझ रहा था,,,
,दिया और मुकेश दोनों साथ में खाने आये और मुकेश ने बिना खाए ही पेट दर्द का बहाना कर के चला गया....सभी के खा लेने के बाद रेखा ने बची रोटिया मुकेश के साथ बै कर उसे समझाते हुए खिलायीं और खायी...........
उस परिवार के दिन इसी तरह कट रहे थे....दोनों बड़े भाइयों के द्वारा कमाने से कुछ सुगमता हुई...और तीनो छोटों ने अपनी पढाई पूरी कि...(रेखा को छोडकर)...
सुरेश का मन डॉक्टर बनने का था लेकिन उसकी पढाई तो शायद वो कभी नहीं कर सकता क्योंकि न तो उस समय बैंक के प्लान थे और न ही कोई और सहारा .........
उसने अपने सपने को मार दिया.......आज उसका अपना एक दुकान है जिसमे वो दिन भर सामान बेचता है........मुकेश का भी वही हाल है............बड़े दोनों भाई अपने दुनिया में मस्त है....दिया कि शादी भी हो गयी.........रेखा कि तो सबसे पहले ही हो गयी थी.............
कुल मिलाके यदि इसे सुखी जीवन कहते है तो सभी अपने जिंदगी में अच्छे से हैं...................
कहानी ख़त्म होने पे मैंने माँ से पूछा था कि माँ रेखा ने ऐसा क्यों किया ? उसके सपने का क्या हुआ? क्या उसका कोई सपना नहीं था?
माँ ने कहा कि पढाई का उदेश्य जिम्मेदारी का बोध कराना है,,,,,,,,,,और केवल अपने सपने के लिए तो कोई भी जी लेता है, किसी के सपने पूरा करने का सुख ही कुछ और होता है.............
मुझे उनमे रेखा बोलती दिखाई दी..........मेरी आंखे नाम थी..और जुबान खामोश.
मुझे अब लग रहा था कि मैं अक्सर अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए जो छोटा होने का दावा करता हूँ वो कितना खोखला है...........वास्तव में खुदा ऐसे लोगों को खुद बना के ही भेजता है उन्हें उम्र कि सीमा से परे किसी बहाने से परे .........बस वो अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते जाते हैं ,,,,,,बिना किसी अपेक्षा के ........पता नहीं ये सुख है या कुछ और..........