”मैं कौन हूं?” जो स्वयं से इस प्रश्न को नहीं पूछता है, उसके लिए ज्ञान के द्वार बंद ही रह जाते हैं. उस द्वार को खोलने की कुंजी यही है. स्वयं से पूछो कि ”मैं कौन हूं?” और जो प्रबलता से और समग्रता से पूछता है, वह स्वयं से ही उत्तर भी पा जाता है.
कारलाइल बूढ़ा हो गया था. उसका शरीर अस्सी वसंत देख चुका था. और जो देह कभी अति सुंदर और स्वस्थ थी, वह अब जर्जर और ढीली हो गई थी. जीवन संध्या के लक्षण प्रकट होन
े लगे थे. ऐसे बुढ़ापे की एक सुबह की घटना है. कारलाइल स्नानगृह में था. स्नान के बाद वह जैसे ही शरीर को पोंछने लगा, उसने अचानक देखा कि वह देह तो कब की जा चुकी है, जिसे कि वह अपनी मान बै ा था! शरीर तो बिलकुल ही बदल गया है. वह काया अब कहां है जिसे उसने प्रेम किया था? जिस पर उसने गौरव किया था, उसकी जगह यह खंडहर ही तो शेष रह गया है. पर साथ ही एक अत्यंत अभिनव-बोध भी उसके भीतर अकुंडलित होने लगा : ”शरीर तो वही नहीं है, लेकिन वह तो वही है. वह तो नहीं बदला है.” और तब उसने स्वयं से ही पूछा था, ”आह! तब फिर मैं कौन हूं?”
यही प्रश्न प्रत्येक को अपने से पूछना होता है. यही असली प्रश्न है. प्रश्नों का प्रश्न यही है. जो इसे नहीं पूछते, वे कुछ भी नहीं पूछते हैं. और, जो पूछते ही नहीं, वे उत्तर कैसे पा सकगें?
पूछो. अपने अंतरतम की गहराइयों में इस प्रश्न को गूंजने दो, ”मैं कौन हूं?”
जब प्राणों की पूरी शक्ति से कोई पूछता है, तो अवश्य ही उत्तर उपलब्ध होता है. और, वह उत्तर जीवन की सारी दिशा और अर्थ को परिवर्तित कर देता है. उसके पूर्व मनुष्य अंधा है. उसके बाद ही वह आंखों को पाता है.