एक बार संत फ्रांसिस अपने शिष्य लियो के साथ कहीं जा रहे थे। रात हो चली थी और बहुत तेज बारिश भी हो रही थी। वे कच्ची सड़क पर चल रहे थे, इसलिए उनके कपड़े कीचड़ से लथपथ हो गए थे। दोनों कुछ देर तक चुप रहे फिर अचानक संत फ्रांसिस ने पूछा- क्या तुम जानते हो कि सच्चे साधु कौन होते हैं? लियो चुपचाप सोचते रहे।
उन्हें मौन देख फ्रांसिस ने ही फिर कहा- सच्चा साधु वह नहीं होता जो किसी रोगी को
ीक कर दे या पशु-पक्षियों की भाषा समझ ले। सच्चा साधु वह भी नहीं होता जिसने घर-परिवार से नाता तोड़ लिया हो या जिसने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो। लियो को यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ।
उन्होंने पूछा- तब फिर सच्चा साधु कौन होता है? फ्रांसिस बोले- कल्पना करो, इस अंधेरी रात में हम जब शहर पहुंचें और नगर का द्वार खटखटाएं। चौकीदार पूछे- कौन तो हम कहें- दो साधु। इस पर वह कहे- मुफ्तखोरों! भागों यहां से। न जाने कहां-कहां से चले आते हैं। लियो की हैरानी बढ़ती जा रही थी। फ्रांसिस ने फिर कहा-सोचो, ऐसा ही व्यवहार और जगहों पर भी हो। हमें हर कोई उसी तरह दुत्कारे। अपमानित करे, प्रताड़ित करे। तो भी यदि हम नाराज न हों, उनके प्रति थोड़ी भी कटुता हमारे मन में आए और हम उनमें भी प्रभु के ही दर्शन करते रहें तो यही सच्ची साधुता है। याद रखो साधु होने का मापदंड है हर परिस्थिति में समानता और सहजता का व्यवहार।
इस पर लियो ने सवाल किया- लेकिन इस तरह का भाव तो एक गृहस्थ में भी हो सकता है। तो क्या वह भी साधु है? फ्रांसिस ने मुस्कराते हुए कहा- बिल्कुल। जैसा कि मैंने पहले कहा सिर्फ घर छोड़ देना ही साधु होने का लक्षण नहीं है। साधु के गुणों को धारण करना ही साधु होना है। और ऐसा कोई भी कर सकता है।