विश्वामित्र इस बात से बहुत नाराज़ थे कि उनकी वर्षों की तपस्या और संन्यास के बावजूद उनके चिरप्रतिद्वंद्वी महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें राजश्री कहकर संबोधित किया जबकि वे ब्रहर्षि की उपाधि पाना चाहते थे।
इसलिए एक चांदनी रात को जब महर्षि वशिष्ठ अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे, विश्वामित्र छुपते-छुपाते उनके आसन तक पहुंच गए। वे अपनी तलवार से उनका वध करने के इरादे से वहां गए थे। हमला करने के पूर्व झाड़ियों के पीछे छुपकर वे कुछ देर के लिए वशिष्ठ की बातों को सुनने लगे।
उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को शीतल चाँदनी की तुलना विश्वामित्र से करते हुए सुना। वशिष्ठ अपने शिष्यों से कह रहे थे कि यह चांदनी रात विश्वामित्र की ही तरह शीतल, चमकदार, उपचारात्मक, स्वर्गीय, वैश्विक एवं मोहक है।
यह सुनकर विश्वामित्र के हाथ से तलवार छूट गयी। वे वशिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। विश्वामित्र को पहचानते ही वशिष्ठ ने उन्हें आदरपूर्वक अपने आसन पर बैठाया।
फिर वशिष्ठ ने उनसे कहा कि जब तक मन मे अहंकार रहा, वे ब्रहर्षि की उपाधि प्राप्त नहीं कर पाये। और जब उनके मन से यह अहंकार जाता रहा और वे अपने प्रतिद्वंद्वी के चरणों में गिर गए, उसी समय से वे ब्रहर्षि की उपाधि के पात्र हो गए।