एक मछलियां बेचने वाला मछलियां बेच कर लौटता है। और बीच सड़क पर--भयंकर लू चल रही है, गर्मी के उत्तप्त दिन हैं, आकाश से आग बरस रही है--वह गश खाकर गिर पड़ता है। भूखा; गर्मी; लंबी यात्रा। जिस रास्ते पर गिर पड़ता है, वह गंधियों का रास्ता है, जिनका धंधा ही सुगंध बेचना है। पास की ही दुकान का जो गंधी है, वह अपनी श्रेष्ठतम गंध को लेकर आता है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि अगर श्रेष्ठ गंध बेहोश आदमी को सुंघाई जाए, तो वह होश में आ जाता है।
पता नहीं यह बात कहां तक सच है गंध के और साधारण बेहोशी के संबंध में, मगर धर्म नाम की गंध के संबंध में तो बिलकुल सच है। कितने ही बेहोश आदमी को सुंघाया जाए, अगर उसके हृदय तक गंध पहुंच जाए, तो सोए प्राण तत्क्षण जाग उठते हैं। मगर हृदय तक पहुंचने में बड़ी बाधाएं हैं। और वैसी ही बाधा वहां खड़ी हो गई।
गंधी ने तो अपनी सुगंध की बोतल खोल दी--बहुमूल्य--जिसको सम्राट भी खरीदने में दो क्षण झिझकते, इतनी उसकी कीमत थी। लेकिन यह आदमी मर रहा है, इसको बचाने को गंधी ने जो भी वह कर सकता था, करने की कोशिश की। मगर वह मरता आदमी अब तक तो बेहोश था सिर्फ, अब हाथ तड़फड़ाने लगा, सिर पटकने लगा। बेहोशी में ऐसे तड़पने लगा, जैसे मछली को किसी ने किनारे पर फेंक दिया हो।
भीड़ लग गई। एक आदमी ने उस गंधी को कहा कि रुको मेरे भाई! तुम दयावश जो कर रहे हो, वह उसके प्राण ले लेगा। मैं भी मछलियां बेचने वाला हूं। तुम हटो। यह अपनी बोतल बंद करो। तुम्हें पता नहीं कि मछलियां बेचने वाले केवल एक ही सुगंध को पहचानते हैं--मछलियों की सुगंध! और तो सब दुर्गंध है। उसने जल्दी से अपनी पोटली खोली, जिन कपड़ों में मछलियां बांध कर वह भी बाजार बेचने आया था। मछलियां तो बेच आया था; कपड़े थे। लेकिन उन्हीं कपड़ों में रोज मछलियां बेचने लाता था। मछलियों की गंध को पी गए थे वे कपड़े। उसने उन पर जल्दी से पानी छिड़का और उस आदमी के चेहरे पर वे कपड़े ओढ़ा दिए।
क्षण भर की भी देर न लगी, उस आदमी ने आंखें खोल दीं! और उसने कहा, किसने यह सुगंध मुझे सुंघाई! और तूने मुझे बचा लिया। यह आदमी तो मुझे मार डालता। यद्यपि मैं बेहोश था, लेकिन जब इसने दुर्गंध मेरी नाक के पास लाया; कैसी दुर्गंध इसकी शीशी में भरी है कि मैं तड़पने लगा! मुझे भीतर समझ में आने लगा कि मेरी जान अब गई। अब ज्यादा देर बचने का नहीं हूं। अगर किसी ने इस आदमी को न हटाया, तो मेरी मौत निश्चित है। तू ठीक समय पर आ गया।
मछली की सुगंध का जो आदी हो जाए, उसे फिर जगत की सारी सुगंधें दुर्गंध हो जाती हैं। बुद्धि के हम आदी हो गए हैं, इसलिए प्रेम से परिचय बनाना मुश्किल। बुद्धि ज्यादा से ज्यादा काम से संबंध बना पाती है। क्योंकि काम का शोषण किया जा सकता है। काम एक शारीरिक जरूरत है। प्रेम तो कोई जरूरत नहीं। प्रेम तो काव्य जैसा है; उसके बिना जिंदगी बड़े मजे से चल सकती है। काम रोटी जैसा है; उसके बिना जिंदगी नहीं चल सकती है।
काम बहुत स्थूल है; स्थूल देह को उस पोषण की जरूरत है। लेकिन प्रेम बहुत सूक्ष्म है। और अभी तुम्हारी सूक्ष्म आत्मा जगी ही नहीं कि उसे भोजन की जरूरत हो। और धर्म तो आत्यंतिक है। जब तुम्हारे भीतर परमात्मा जगता है, तो तुम्हारे आस-पास जो आभा विकीर्णित होती है, उसका नाम धर्म है।