बगला दशक
(प्रस्तुत ‘बगला-दशक’ स्तोत्र में पाँच मन्त्र बगला विद्या के सुख-साध्य और सु-शीघ्र फल-दायी हैं । इस मन्त्रों में एक बगला के ‘मन्दार’ मन्त्र नाम से प्रसिद्ध है ।
उक्त स्तोत्र में मन्त्र तो पाँच हैं, पर उनके विषय में मन्त्रोद्धार तथा फल-समेत दस पद्य होने के कारण ‘बगला-दशक’ नाम दिया है ।)
सुवर्णाभरणां देवीं, पीत-माल्याम्बरावृताम् ।
ब्रह्मास्त्र-विद्यां बगलां, वैरिणां स्तम्भनीं भजे ।।
मैं सुवर्ण के बने सर्वाभरण पहने हुए तथा पीले वस्त्र और पीले पुष्प (चम्पा) की माला धारण करने वाली एवं साधक के वैरियों का स्तम्भन करने वाली ब्रह्मास्त्र-विद्या-स्वरुपा बगला विद्या भगवती को भजता हूँ ।
बगला के मूल विद्या-स्वरुप का विवेचन
(१)
यस्मिंल्लोका अलोका अणु-गुरु-लघवः स्थावरा जंगमाश्च ।
सम्प्रोताः सन्ति सूत्रे मणय इव वृहत्-तत्त्वमास्तेऽम्बरं तत् ।।
पीत्वा पीत्यैक-शेषा परि-लय-समये भाति या स्व-प्रकाशा ।
तस्याः पीताम्बरायास्तव जननि ! गुणान् के वयं वक्तुमीशाः ।।
हे जननि ! जिसमें ये लोक, जो दृश्य दीखने योग्य हैं और अलोक, जो अदृश्य – न दीखने योग्य हैं (ऐसे बहुत से पदार्थ और जीवादि तत्त्व हैं, जो मानव दृष्टि में नहीं आते, परन्तु अवश्यमेव अपनी सत्ता सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रखते हैं ), वे अणु-से-अणु, लघु छोटे, गुरु बड़े, स्थूल-रुप वाले स्थावर तथा जंगम, स्थिर और चर-स्वरुप वाले -सभी ओत-प्रोत हैं, पिरोए हुए हैं । जैसे सूत में मनके पिरोए हुए हों । वह सबसे बड़ा तत्त्व अम्बर – आकाश – महाकाश-तत्त्व है । इस महाऽऽकाश-तत्त्व में ही यह सब कुछ प्रपञ्च ब्रह्माण्ड अनेकानेक व्याप्त हो रहे हैं । यह भावार्थ हुआ ।
उस महा-महान् अम्बर तत्त्व को महा-प्रलय-समय में पी-पीकर केवल एक-मात्र आप स्व-प्रकाश से शेष रहती हैं । स्वयं केवल आप ही प्रकाशमान रहती हैं । उस ‘पीताम्बरा – पीतम् अम्बरं यथा सा’ – पी लिया है महाऽऽकाश-तत्त्व जिसने, ऐसी महा मूल-माया-स्वरुपा भगवती बगला ! आपके गुण-गान करने में हम कौन समर्थ हो सकते हैं ! ।
(२)
आद्यैस्त्रियाऽक्षरैर्यद् विधि-हरि-गिरिशींस्त्रीन् सुरान् वा गुणांश्च,
मात्रास्तिस्त्रोऽप्यवस्थाः सततमभिदधत् त्रीन् स्वरान् त्रींश्च लोकान् ।
वेदाद्यं त्यर्णमेकं विकृति-विरहितं बीजमों त्वां प्रधानम्,
मूलं विश्वस्य तुर्य्यं ध्वनिभिरविरतं वक्ति तन्मे श्रियो स्यात् ।।
हे मातः ! पीताम्बरे ! भगवति ! अकार आदि तीन वर्णों से ‘प्रणव’ ॐ के विश्लेषण में – अ + उ + म् – ऐसे तीन अक्षर हैं । इन तीनों अक्षरों में ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन तीनों देवों को और तीन (सत्त्व, रजः, तमः) गुणों की एवं तीन मात्राओं एक-द्वि-त्रिमात्राओं को तथा उदात्त, अनुदात्त, स्वरित – इन स्वरों को तथा तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) को और तीन लोकों (भूः, भुवः, स्वः) को निरन्तर बतलाया हुआ यह वेद का आद्य वर्ण ॐ-कार (प्रणव) तीन अक्षरवाला विकृति-रहित निर्विकार आपका बीज है । यह आपको अपनी तीन वर्ण-ध्वनियों से उक्त सभी तीन-तीन देवों, गुणों, अवस्थाओं, मात्राओं, स्वरों और लोकों में सर्व-प्रधान-तत्त्व विश्व का मूल-तुरीय तत्त्व निरन्तर बतलाता है । वह मुझे श्री प्रदान करने वाला हो ।
(३)
सान्ते रान्तेन वामाक्षणि विधु-कलया राजिते त्वं महेशि !
बीजान्तःस्था लतेव प्रविलससि सदा सा हि माया स्थिरेयम् ।
जप्ता श्याताऽपि भक्तैरहनि निशि हरिद्राक्त-वस्त्रावृतेन ।
शत्रून् स्तभ्नाति कान्तां वशयति विपदो हन्ति वित्तं ददाति ।।
हे महेशि ! भगवति बगले ! ‘वामाक्षणि’ बाँएं नेत्र में अर्थात् ईकार में, ‘विधु-कलया’ (रान्तेन राजिते सान्ते) ‘रान्ते’ लकार से और ‘विधु-कलया’ चन्द्र-बिन्दु अनुस्वार बिन्दु से विराजित, ‘सान्त’ हकार में अर्थात् ईकार में लकार मिले हुए और अनुस्वार-युक्त हकार से “ह्ल्रीं” बनता है । इसे ‘स्थिर-माया’ कहते हैं । यही बगला का मुख्य बीज है । इसमें हे महेशि ! आप बीज में लता की तरह सदा विलास करती हो । वही ‘स्थिर-माया’ आपका एकाक्षर मुख्य मन्त्र है । यह ध्यान और जप करने से भक्तो, साधकों को, जो दिन में रात में हरिद्रा (हल्दी) से रंगे वस्त्र पहने हुए, हल्दी की माला से, पीतासन पर बैठे इसे ध्याते-जपते हैं या जपते आपका ध्यान करते रहते हैं, तो यही ‘स्थिर-माया’ महा-मन्त्र उन साधकों के शत्रुओं को स्तम्भित करते है, मनोहर कामिनियों को वशीभूत करता है, विपत्तियों को दूर करता है और मन-माना धन प्रदान करता है । अर्थात् सभी वाञ्छित प्रदान करता है ।
(४)
मौनस्थः पीत-पीताम्बर-वलित-वपुः केसरीयासवेन ।
कृत्वाऽन्तस्तत्त्व-शोधं कलित-शुचि-सुधा-तर्पणोऽर्चां त्वदीयाम् ।
कुर्वन् पीतासनस्थः कर-धृत-रजनी-ग्रन्थि-मालोऽन्तराले ।
ध्यायेत् त्वां पीत-वर्णां पटु-युवति-युतो हीप्सितं किं न विन्देत् ।।
हे पीताम्बरे भगवति ! आपका साधक मौन धारे हुए, यहाँ ‘मौन’ से अन्यान्य बातचीत करने, किसी दूसरे से बोलने का निषेध समझना चाहिए, स्वयं साधक तो ध्यान-मन्त्रादि उच्चारण करें ही, ऐसा संकेत है । पीले आसन पर बैठ, पीले वस्त्र पहन, अपनी चतुर शक्ति के साथ केसर आसव से तत्त्व-शोधन कर अन्तर्याग में ध्यान-पूजा कर उसी शोधित केसर के आसव से भगवती को तर्पण अर्पण कर (पुनः आवरण-सहित पूजा पूर्ण कर) हरिद्रा-ग्रन्थि की माला हाथ में ले उससे जप करता है (सशक्ति ही जप करता है) और आप पीत-वर्णों का ध्यान करता है, तो निश्चय ही वह कौन-सा मनोरथ है, जो उसे प्राप्त न हो । अर्थात् वह समर्थ साधक सभी अभीष्ट पा सकता है । यह प्रयोग भी अनुभूत ही है ।
(५)
वन्दे स्वर्णाभ-वर्णा मणि-गण-विलसद्धेम-सिंहासनस्थाम् ।
पीतं वासो वसानां वसु-पद-मुकुटोत्तंस-हारांगदाढ्याम् ।
पाणिभ्यां वैरि-जिह्वामध उपरि-गदां विभ्रतीं तत्पराभ्याम् ।
हस्ताभ्यां पाशमुच्चैरध उदित-वरां वेद-बाहुं भवानीम् ।।
सुवर्ण-से वर्ण (कान्ति, रुप) वाली, मणी-जटित सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान और पीले वस्त्र पहने हुई (पीले ही गन्ध-माल्य-सहित) एवं ‘वसु-पद’-अष्ट-पद-अष्टादश सुवर्ण के मुकुट, कुण्डल, हार, बाहु-बन्धादि भूषण पहने हुई एवं अपनी दाहिनी दो भुजाओं में नीचे वैरि-जिह्वा और ऊपर गदा धारण करती हुई; ऐसे ही बाएँ दोनों हाथों में ऊपर पाश और नीचे वर धारण करती हुई, चतुर्भुजा भवानी भगवती को ‘वन्दे’ प्रणाम करता हूँ ।
(६)
षट्-त्रिंशद्-वर्ण-मूर्तिः प्रणव-मुख-हरांघ्रि-द्वयस्तावकीन-
श्चम्पा-पुष्प-प्रियाया मनुरभि-मतदः कल्प-वृक्षोपमोऽयम् ।
ब्रह्मास्त्रं चानिवार्य्यं भुजग-वर-गदा-वैरि-जिह्वाग्र-हस्ते !
यस्ते काले प्रशस्ते जपति स कुरुतेऽप्यष्ट-सिद्धिः स्व-हस्ते ।।
पाश, वर, गदा और वैरि-जिह्वा हाथ में धारण करने वाली ! आपका प्रणव-मुख वाला, ॐ-कार जिसका मुख है -आदि है । और ‘हरांघ्रि-द्वय’ – ठ-द्वय-’स्वाहा’ अन्त में पद है, ऐसी छत्तीस वर्णों की मूर्ति-माला; चम्पा के पुष्पों को अधिक प्रिय समझनेवाली आपका यह महा-मन्त्र कल्प-वृक्ष के समान सर्वाभीष्ट फल देने वाला है । यही अनिवार्य, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है ऐसा, ब्रह्मास्त्र है । जो साधक इसे ‘प्रशस्त’ काल में -चन्द्र-तारादि अनुकूल समय में जपता है (आपकी सबिधान अर्चना के साथ), वह आठों सिद्धियों को अपने अस्त-गत कर लेता है ।
(७)
मायाद्या च द्वि-ठान्ता भगवति ! बगलाख्या चतुर्थी-निरुढा ।
विद्यैवास्ते य एनां जपति विधि-युतस्तत्व-शोधं निशीथे ।
दाराढ्यः पञ्चमैस्त्वां यजति स हि दृशा यं यमीक्षेत तं तम् ।
स्वायत्त-प्राण-बुद्धीन्द्रिय-मय-पतितं पादयोः पश्यति द्राक् ।।
हे भगवति ! ‘मायाद्या’-माया ‘ह्रीं’ आदि में है जिसके, ऐसी और ‘चतुर्थी-निरुढा’ – चतुर्थी विभक्ति में बैठी हुई ‘स्वाहा’ – यह ‘आख्या’ नाम अर्थात् ‘बगलायै’; द्वि-ठान्ता – द्वि-ठः ‘स्वाहा’ है अन्त में जिसके अर्थात् ‘ह्रीं बगलायै स्वाहा’ – यों सप्तार्ण मन्त्र हुआ । यह भी विद्या ही है । स्वाहान्त मन्त्र ‘विद्या’ कहलाते हैं । जो मानव आगम-विधान-कुल और आम्नायोक्त पद्धति से अर्द्ध-रात्रि में तत्त्व-शोधन आदि पूर्णकर ‘दाराढ्यः’ दारा-शक्ति, उसके साथ, पाँच मकारों से आपकी पूजा करता है और इस विद्या का जप करता है, वह साधकेन्द्र अपनी दृष्टि से जिस-जिसको देखता है, शीघ्र ही उस-उसको मन-प्राण-बुद्धि-इन्द्रियों-समेत स्व-वश हुए और अपने चरणों में पड़े हुए देखता है ।
(८)
माया-प्रद्युम्न-योनिव्यनुगत-बगलाऽग्रे च मुख्यै गदा-धारिण्यै ।
स्वाहेति तत्त्वेन्द्रिय-निचय-मयो मन्त्र-राजश्चतुर्थः ।
पीताचारो य एनं जपति कुल-दिशा शक्ति-युक्तो निशायाम् ।
स प्राज्ञोऽभीप्सितार्थाननुभवति सुखं सर्व-तन्त्र-सवतन्त्रः ।।
हे मातः ! माया ‘ह्रीं’ (यहाँ स्थिर-माया भी स्वीकार्य है, प्रसंगोपात्त होने के कारण), प्रद्युम्न ‘क्लीं’ और ‘योनि ‘ऐं’ – इनके अनुगत ‘बगला’, उसके आगे ‘मुख्यै’ और ‘गदा-धारिण्यै स्वाहा’ – इस प्रकार यह तत्त्व (५) और इन्द्रिय (१०) मिलकर पन्द्रह वर्ण का ( ह्रीं क्लीं ऐं बगला-मुख्यै गदा-धारिण्यै स्वाहा) मन्त्र हुआ । इसे ‘बगला पञ्चदशी मन्त्र रत्न’ कहते हैं । यह चौथा मन्त्र-राज है , जो साधक-श्रेष्ठ इस मन्त्र को कुल-क्रम से -निशा में शक्ति-समन्वित हुआ जपता है (अर्चन-तर्पण सहित), वह बुद्धिमान् विद्वान् सर्व-तन्त्र-स्वतन्त्र होता है और अपने सभी अभीष्ट अर्थों का सुख-पूर्वक अनुभव करता है ।
(९)
श्री-माया-योनि-पूर्वा भगवति बगले ! मे श्रियं देहि देहि,
स्वाहेत्थं पञ्चमोऽयं प्रणव-सह-कृतो भक्त-मन्दार-मन्त्रः ।
सौवर्ण्या मालयाऽमुं कनक-विरचिते यन्त्रके पीत-विद्याम् ।
ध्यायन् पीताम्बरे ! त्वां जपति य इह स श्री समालिंगितः स्यात् ।।
श्री – ‘श्रीं’ बीज और माया -’ह्रीं’ बीज तथा योनि – ‘ऐं’ बीज पूर्व बोलकर ‘भगवति बगले ! मे श्रियं देहि देहि स्वाहा’ इस प्रकार ‘प्रणव’ ॐ-कार सहित किया हुआ यह पाँचवाँ ‘भक्त-मन्दार’ नाम का बगला विद्या का मन्त्र-रत्न है । इस मन्त्र को सुवर्ण की माला से सुवर्ण यन्त्र पर हे पीताम्बरे ! आप भगवती को पूजता – ध्याता हुआ जो मनुष्य जपता है, वह संसार में श्री (लक्ष्मी) से समालिंगित रहता है । पीताम्बरा ‘पञ्चदशी’ भी यही है, प्रणव-सहित ‘षोडशी’ भी यही है ।
(१०)
एवं पञ्चापि मन्त्रा अभिमत-फलदा विश्व-मातुः प्रसिद्धाः,
देव्या पीताम्बरायाः प्रणत-जन-कृते काम-कल्प-द्रुमन्ति ।
एतान् संसेवमाना जगति सुमनसः प्राप्त-कामाः कवीन्द्राः ।
धन्या मान्या वदान्या सुविदित-यशसो देशिकेन्द्रा भवन्ति ।।
इस प्रकार ये पाँचों मन्त्र विश्व माता देवी भगवती पीताम्बरा के प्रसिद्ध हैं और ये प्रणत (भक्त साधक) जनों के लिए काम-कल्पद्रुम हैं । इन्हें साधते हुए विद्वान साधक भक्त लोग पूर्ण मनोरथ पाते और कविराज बनते एवं धन्य सम्माननीय तथा उदार नम वाले प्रख्यात यशस्वी और देशिकेन्द्र अर्थात् गुरुवर मण्डलाधीश बनते हैं ।
करस्थ चषकस्यात्र, संभोज्य झषकस्य च ।
बगला-दशकाध्येतुर्मातंगी मशकायते ।।
हाथ में सुधा-पूर्ण पात्र हो (तत्त्व-शोधन करता और रहस्य-याग में होम करता हो तथा तर्पण – निरत हो), आगे उस साधक के भोज्य पदार्थों में का प्रशस्त ‘झषक’ शोधित संस्कारित हो । फिर बगला भगवती का दशक वह पढ़ता हो, ऐसे साधकेन्द्र के लिए या उक्त साधक के आगे मातंग हाथी भी मशक समान हो जाता है । वह साधक हाथी को भी, अपने विपरित हो, तो मच्छर समझता है ।