Maithili Sharan Gupt
Maithilisharan Gupt (मैथिलीशरण गुप्त) (3 August 1886 – 12 December 1964) was one of the most important modern Hindi poets. He is considered among the pioneers of Khari Boli (plain
dialect) poetry and wrote in Khari Boli dialect, at a time when most Hindi poets favoured the use of Braj Bhasha dialect.
Early life
He was born in Chirgaon, Jhansi in a Gahoi family. His father was Seth Ramcharan Gupta and mother's name was Smt. Kashibai. He disliked school as a child, so his father arranged for
his education at their home. As a child, Gupt studied Sanskrit, English and Bengali. Mahavir Prasad Dwivedi was his mentor. He was married in 1895.
He was the teacher of Dewan Shatrughan Singh(Bundelkhandi Royal), who is known as Bundelkhand Kesri & Bundelkhand Gandhi.
Career
Literary works
Gupt entered the world of Hindi literature by writing poems in various magazines, including Saraswati. In 1910, his first major work, Rang mein Bhang was published
by Indian Press. With Bharat Bharati, his nationalist poems became popular among Indians, who were struggling for independence. Most of his poems revolve around plots from
Ramayana, Mahabharata, Buddhist stories and the lives of famous religious leaders. His famous work Saket revolves around Urmila, wife of Lakshmana, from Ramayana, while another
of his works Yashodhara revolves around Yashodhara, the wife of Gautama Buddha.
प्राण न पागल हो तुम यों, पृथ्वी पर वह प्रेम कहाँ..
मोहमयी छलना भर है, भटको न अहो अब और यहाँ..
ऊपर को निरखो अब तो बस मिलता है चिरमेल वहाँ..
Translations
Gupt also translated major works from other language into Hindi. These include the Rubaiyat of Omar Khayyám and Swapnavaasavdatta, a Sanskrit play.
Public office
After India became independent in 1947, he was also made an honorary member of the Rajya Sabha, where he used poetry to put his opinions before the other members. He remained
a member of the Rajya Sabha till his death in 1965.
Creative style
His works are based along patriotic themes, among others poets such as such as Ramdhari Singh Dinkar, Makhanlal Chaturvedi. His poetry is characterized by non-rhyming couplets,
in Khadi Boli. Although the couplet structure is non rhyming, the prominent use of alliterations lends a rhythmic backdrop due the rhythmic alterations between vowels and
consonants. He was a religious man, and this can be seen in his works.
Major works
Poetry:
Rang mein Bhang
Bharat-Bharati
Jayadrath Vadh
Vikat Bhat
Plassey ka Yuddha
Gurukul
Kisan
Panchavati
Siddharaj
Saket
Yashodhara
Arjan Aur Visarjan
Kaaba-Karbala
Jayabharat
Dwapar
Jahush
Vaitalik
Kunal
Vishvarajya
kirano ka khel
"manushyta"
Drama:
Tilottama (1916)
Chandrahaas (1916)
Anagh (1925)
Vijay Parwa (1960)
मैथिलीशरण गुप्त
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (१८८५ - १९६४) हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। श्री पं महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और
इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों
की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे और आने वाली सदियों में नए कवियों के लिए प्रेरणा का
स्रोत होंगे।
जीवन परिचय
गुप्त जी कबीर दास के भक्त थे। हिन्दी साहित्य के प्रखर नक्षत्र, माँ भारती के वरद पुत्र मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त सन १८८६ ई. में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रुप में चिरगांव, झांसी में हुआ। माता और पिता दोनों ही परम वैष्णव
थे। वे "कनकलताद्ध" नाम से कविता करते थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ
किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई। प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग' तथा वाद में "जयद्रथ वध' प्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध" "ब्रजांगना" का अनुवाद
भी किया। सन् १९१४ ई. में राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत में लिखित "स्वप्नवासवदत्त" का अनुवाद प्रकाशित कराया। सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य "साकेत' का लेखन प्रारम्भ किया। उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव इस
ग्रन्थ में दूर किये। स्वतः प्रेस की स्थापना कर अपनी पुस्तकें छापना शुरु किया। साकेत तथा अन्य ग्रन्थ पंचवटी आदि सन् १९३१ में पूर्ण किये। इसी समय वे राष्ट्रपिता गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये। 'यशोधरा' सन् १९३२ ई. में लिखी। गांधी जी ने उन्हें "राष्टकवि" की संज्ञा प्रदान की।
सन् १९४१ ई. में व्यक्तिगत सत्याग्रह के अंतर्गत जेल गये। आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें "पद्म विभूषण' से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने
सन् १९६२ ई. में "अभिनन्दन ग्रन्थ' भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया।
इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता श्री गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया। १२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो
गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। "भारत भारती' के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और
सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार वे राष्ट्रकवि थे, सच्चे राष्ट्रकवि। दिनकर जी के अनुसार उनके काव्य के भीतर भारत की प्राचीन संस्कृति एक बार फिर तरुणावस्था को प्राप्त हुई थी।
देश प्रेम
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और कानपुर से प्रताप नामक समाचार-पत्र निकालने वाले निर्भीक पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी के मिलने का केंद्र बिंदु प्रताप प्रेस ही रहा करता था। 1915 में मुंबई से लौटते हुए गणेश जी पहले पहल चिरगांव में गुप्त जी के घर पहुंचे। भोजन में उन्होंने दाल-रोटी खाने
की इच्छा प्रकट की, जबकि गुप्त जी साग-पूड़ी खिलाने जा रहे थे। यहीं से दोनों की मित्रता प्रगाढ़ हुई और फिर गुप्त जी सदैव विद्यार्थी जी की पसंद का ध्यान रखने लगे। कलम के वार से दोनों साहित्यकार देश को आजादी दिलाने के प्रयास में लगे थे। दोनों महापुरुष विशाल हृदय की संवेदना
वाले थे। उनके हृदय उदार थे।
काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्त्र धारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देश भर में प्रवाहित किया था, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने।
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी जनपद के चिरगांव में 3 अगस्त 1886 को सेठ रामचरणदास जी गुप्त के यहां हुआ था। कविता करना तो उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थी। पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि'के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने
का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिंदी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। सैकड़ों शोधार्थियों ने उनकी काव्यगत विशेषताओं पर शोध-प्रबंध लिखे है। भारत-भारती, साकेत, यशोधरा,
द्वापर, कुणाल, मेघनाथ वध आदि ग्रंथों की आपने रचना की है। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। 12 दिसंबर 1964 को चिरगांव
में ही उनका देहावसान हुआ। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिंदी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु
अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।
साहित्य और श्री मैथिलीशरण गुप्त
गुप्त जी के काव्य में मानव-जीवन की प्रायः सभी अवस्थाओं एवं परिस्थितियों का वर्णन हुआ है। अतः इनकी रचनाओं में सभी रसों के उदाहरण मिलते हैं। प्रबन्ध काव्य लिखने में गुप्त जी को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई है। गुप्त जी की प्रसिद्ध काव्य-रचनाएँ-साकेत,यशोधरा,द्वापर,सिद्धराज,
पंचवटी, जयद्रथ-वध, भारत-भारती, आदि हैं। भारत के राष्ट्रीय उत्थान में भारत-भारती का योगदान अमिट है। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं के केन्द्र में संयुक्त परिवार को श्रेष्ठ माना। 'साकेत' में दशरथ का परिवार इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। इसके साथ उन्होंने उपेक्षित एवं शोषित नारी के प्रति
अपनी अगाध संवेदना व्यक्त की है। गुप्त जी शोषण मुक्त समाज के पक्षधर है। उन्हे वही राम राज्य पसंद है जहां एक राजा अपनी प्रजा के कल्याण के लिए समस्त सुखों का त्याग आसानी से कर देता है। उन्होंने खड़ी बोली को इतना सरल बना दिया कि इसमें बृजभाषा जैसी मधुरता है।
गुप्त जी का सिद्ध राज उनकी अन्य रचनाओं की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ है। इसके संवादों में जो नाटकीयता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। गुप्त जी ने अपने युग की प्रचलित सभी शैलियों में काव्य रचना की है।
मैथिलीशरण गुप्त के नाटक
श्रीमैथिलीशरण गुप्त जी ने 5 मौलिक- ‘अनघ’, ‘चन्द्रहास’, ‘तिलोत्तमा’, ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ और ‘विसर्जन’ नाटक लिखे हैं और भास के चार नाटकों- ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतिमा’, ‘अभिषेक’, ‘अविमारक’ का अनुवाद किया है। इन नाटकों में ‘अनघ’ जातक कथा से सम्बद्ध बोधिसत्व की कथा पर
आधारित पद्य में लिखा गया नाटक है। नितांत तकनीकी दृष्टि से इसे ‘काव्य नाटक’ नहीं कहा जा सकता है। ‘चन्द्रहास’ इतिहास का आभास उत्पन्न करने वाला नाटक है। जिसमें नियति और सत्कर्म का महत्त्व संप्रेषित है। तिलोत्तमा पौराणिक नाटक है। ये नाटक पहले प्रकाशित हो चुके हैं,
परन्तु ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ और ‘विसर्जन’ पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं, इस अर्थ में नये हैं। भास के अनुदित नाटकों के चयन में भी गुप्त जी ने वैविध्य का ध्यान रखा है।
इन नाटकों का मुख्य उद्देश्य अपने समय के यक्ष प्रश्नों का उत्तर देना और उन प्रश्नों को मानस प्रकृति और समाज के प्रतिबिंब मानकर प्रस्तुत करना भी रहा है। नाटक गुलामी और दास्ता से मुक्ति तथा मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर लिखा गया लगता है। जैसे अनघ अहिंसा,
करुणा, लोक सेवा, लोक कल्याण आदि मूल्यों की प्रतिष्ठा पर केन्द्रित है। इसमें ऊँच-नीच, छूत-अछूत आदि के भेदों को उखाड़कर समता, सेवा और मनुष्यता के मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है। अनघ के नायक ‘मघ’ अपने ऊपर आक्रमण करने वाले चार चोर, सुरा सेवक सुर, गाय चुराने वाले
और फूँकने वाले ‘ग्राम भाजक’ और ‘मुखिया’ आदि को गौतम बुद्ध की तरह क्षमा कर देता है। गाँव सुधार के लिए कुँओं, घाटों की मरम्मत करता है। जन सेवा के लिए सुरभि से विवाह नहीं करना चाहता है। निर्बलों और असहायों को भक्ष्य मानने वालों को दया और सदाचार का मार्ग बताता
है। नाटक में नवीनता पर बल है, परन्तु नव्यता मात्र के लिए नहीं। एक पात्र कहता है- लीक पीटने से क्या लाभ अन्ध नहीं केवल अमिताभ
स्वतन्त्रता आन्दोलन के गांधीवादी वैष्णवी मूल्यों का मैथिलीशरण जी पर सर्वत्र प्रभाव है। लोक सेवा या जन-सेवा साकेत और यशोधरा का भी विषय है। इस नाटक में उन मूल्यों को बौद्ध धर्म भावित करके प्रस्तुत किया गया है। सुरभि एकमात्र ऐसी चरित्र है जो राजसभा में साक्षात् शक्ति के
रूप में प्रस्तुत होकर अत्याचारियों और पापियों को चुनौती देती है। ‘अनघ’ का नायक मघ जहाँ एक ओर शान्त और धीर है वहीं सुरभि अपने एकात्मक प्रेम के कारण मघ पर लगाये गये दुरभि सन्धिमूलक आरोपों को देखकर, सुनकर सात्त्विक क्रोध से सभा में राजा को भी ललकारती है,
परन्तु रानी की मूल्यानुगामी दृष्टि और प्रजाहित की कामना से ‘मघ’ विद्रोह सिद्ध हो जाता है। चोर, सुर आदि उसके पक्ष को प्रमाणित करते हैं और अन्त में ‘सुरभि’ का मघ से विवाह हो जाता है। पारिवारिकता और गृहस्थ धर्म गुप्त जी की रचनाओं में मानवीय मूल्यों के आधार हैं। इसमें भी
मघ के पिता अमोघ उन्हीं मूल्यों को स्थापित करते हैं। चन्द्रहास नियति और सतकर्म को केन्द्र में रखकर लिखा गया नाटक है। कुन्तलपुर के नरेश कौन्तलप के मन्त्री धृष्टबुद्धि अपने निष्कंटक राज्य के राज पुरोहति गालव के यह कहने पर कि इसमें नरेश बनने की संभावना है, चन्द्रहास को
मरवाना चाहता है। उसके सभी प्रयत्न नियति के कारण बेकार हो जाते हैं और अन्तत: धृष्टबुद्धि की पुत्री विषया और चन्द्रहास का विवाह हो जाता है। चन्द्रहार को मारने का प्रयत्न करने वाला अपने ही पुत्र मदन की हत्या करना चाहता है, परन्तु भाग्य के कारण चन्द्रहास बच जाता है। कुंतल
नरेश जन सम्मान को देखते हुए उसे राज पाट देकर वानप्रस्थी हो जाते हैं। धृष्टबुद्धि पाश्चात्ताप करता है और राजा का अनुगामी बन जाता है। यह नाटक प्रकारान्तर से राजधर्म का उपदेश देता है। इसमें अनघ की तरह की नाटकीयता नहीं है। विषया और चन्द्रहास के मिलन का प्रसंग फुलवारी
प्रसंग जैसा है, परन्तु इसमें भी गुप्तजी ने भारतीय़ परिवारों के अत्यन्त मधुर रिश्तों को भाभी, ननद, भाई और मित्र आदि के माध्यम से एक दल मूल्य के रूप प्रस्तुत किया गया है। राजा को कैसा होना चाहिए और उसका धर्म क्या है ?
यह भी इस नाटक का विषय है, परन्तु इसमें वह उद्धाटनप्रियता नहीं है जो अनघ में है। ‘अनघ’ तो एक प्रकार से बहुस्तरीय भष्टाचार और अन्याय के उद्धाटन और प्रतिरोध का नाटक है। गांधी जी अन्तरात्मा की आवाज को मूल्य मानते रहे हैं, अनघ में वह मूल्य या आवाज अधिक है।
‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ दक्षिण अफ्रीका में कुलियों पर किये गये अमानुषिक अत्याचार और महात्मा गांधी के नेतृत्व में इसका प्रतिरोध करने वाले भारतीय मजदूरों की कथा पर आधारित है। नाटक का पहला दृश्य दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहान्सवर्ग पर केन्द्रित है। रामकृष्ण बार-बार हिन्दुओं की
तेजस्विता को चुनौती देता है और कहता है, ‘‘अब हम वे हिन्दू नहीं हैं जो आँख दिखाने वाले की आँख निकाल लें। रामकृष्ण एक स्थान पर अपनी जाति की हीन और निर्वीर्य्य अवस्था को देखकर कहता है कि हम लोगों जैसी निस्तेजता और मृतक जाति और हम लोगों जैसा स्वार्थी कोई
नहीं है। उसके बार-बार उद्धबोधन का एक निश्चित उद्देश्य है और वह उद्देश्य है संघबद्ध होकर इस प्रकार के अपमान का प्रतिकार। उसके इस प्रकार वचनों का अन्तत: एक लाभ तो होता ही है कि दो हजार से अधिक मजदूरों का अफ्रीका का पहला ऐतिहासिक मार्च महात्मागाँधी के नेतृत्व में
प्रारंभ होता है और गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों को झुकना पड़ता है। रामकृष्ण की तरह यह वाणी मैथिलीशरण गुप्त की अनेक रचनाओं की ही नहीं हिन्दू पुनर्जागरण की भी वाणी है। रामकृष्ण का कथन भारत भारती के कथन की ही प्रतिध्वनि है’’- यदि हम हिन्दू होते होता धरा पै वह कौन
व्यक्ति जो यों दिखाता हमको स्वशक्ति जो आँख कोई हम पै उठाता किये हुए का फल शीघ्र पाता
पूरे नाटक में महात्मा गाँधी नहीं हैं उनके प्रभाव, नेतृत्व और क्षमता का उल्लेख है। यह पहली बार प्रकाशित हो रहा है। इस प्रकार के अनेक वाक्य इस नाटक में नाटककार की हमदर्दी को व्यक्त करते हैं। विश्वम्भरनाथ का राष्ट्रीय शिक्षा के लिए प्रयत्न आन्दोलन की तैयारी की पहली भूमिका
गुप्त जी की राजनैतिक सूझ-बूझ का प्रमाण है। रामदीन को हरदीन के द्वारा झूठे आरोप में फँसाना, जेल भिजवाना, उसकी बेटी की हत्या, स्त्री की मृत्यु, और अन्तत: बदले की भावना से डाकुओं के दल में शामिल होना, हरदीन को पकड़ना और मरने को तैयार होना, विश्वम्भर द्वारा उसका
बचाया जाना, विश्वम्भर के उपदेश से डाकुओं का हृदय परिवर्तन आदि घटनाओं के माध्यम से गुप्त जी ने अन्याय और अत्याचार का गांधावादी हल प्रस्तुत किया है। यह उनकी दृष्टि का प्रमाण है। बेगार प्रथा का यह उत्तर नहीं है, परन्तु गांधी जी का यही उत्तर था। नाटक का नाम डाकुओं के
द्वारा डाकाजनी के विसर्जन के आधार पर रखा गया है न कि समर्पण के आधार पर राष्ट्रीय प्रश्नों का उत्तर खोजने के प्रयत्न में ही लिखा गया है।
भास द्वारा लिखे गये नाटक सरल संस्कृत में लिखे गये प्रसिद्ध नाटक हैं जिनका अधिकांशत: गद्य में और कविताओं का पद्य में अनुवाद किया गया है। अनुवाद में नाटक की मूल प्रकृति और भाषा की सहज प्रवृत्ति का ध्यान रखा गया है। वे परम वैष्णव मैथिलीशरण जी के नाटकों में रामभक्ति,
व्यापक मानवीयता, पारिवारिकता, उदारता और गांधावादी सत्याग्रह, लोक सेवा, जनकल्याण अन्तरात्मा की प्रतिध्वनि, ह्रदय परिवर्तन तथा अहिंसा का न केवल प्रभाव है, बल्कि रचनाओं में इन मूल्यों की मार्मिक अभिव्यक्ति भी है। अत्याचार और अन्याय का विरोध, मनुष्य के स्वभाव को
बदलने की कोशिश उनकी अन्य रचनाओं का भी विषय है।
स्त्रियाँ गुप्त जी के यहाँ अधिक जाग्रत, कर्मठ, सशक्त और तेजस्वी रूप में आती हैं। प्राय: सभी नाटकों में स्त्री पात्र सत्य को न केवल पहचानते हैं बल्कि निष्कपट रूप से अपनी अभिव्यक्ति भी करते हैं। साकेत की सीता, उर्मिला और कैकयी ही नहीं अनघ में मघ की माँ, चन्द्रहास में सुरभि,
तिलोत्तमा में तिलोत्तमा, निष्क्रिय प्रतिरोध में दयाराम की पत्नी और विसर्जन में पार्वती के अधिक निकट और निष्कवच नारियाँ हैं जो अन्याय का प्रतिरोध पुरुषों की तुलना में अधिक सशक्त ढंग से करती हैं।
मैथिलीशरण गुप्त का यह संग्रह उनके नाटककार व्यक्तित्व को ही नहीं समय के प्रश्नों को समझाने और उनका उत्तर खोजने के उनके प्रयत्नों को भी अग्रगामिता प्रदान करता है।
श्री मैथिलीशरण गुप्त की जयंती
मध्य प्रदेश संस्कृति राज्य मंत्री श्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा है कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती प्रदेश में प्रतिवर्ष तीन अगस्त को कवि दिवस के रूप में व्यापक रूप से मनायी जायेगी। यह निर्णय राज्य शासन ने लिया है। युवा पीढ़ी भारतीय साहित्य के स्वर्णिम इतिहास से भली-भांति
वाकिफ हो सके इस उद्देश्य से संस्कृति विभाग द्वारा प्रदेश में भारतीय कवियों पर केन्द्रित करते हुए अनेक आयोजन करेगा।
प्रमुख कृतियाँ
महाकाव्य- साकेत
खंड काव्य- जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्ध्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत,झंकार,पृथ्वीपुत्र, मेघनाद वध, मैथिलीशरण गुप्त के नाटक, रंग में भंग,
राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट, विरहिणी व्रजांगना, वैतालिक, शक्ति,सैरन्ध्री, स्वदेश संगीत, हिडिम्बा, हिन्दू
अनूदित- मेघनाथ वध, वीरांगना, स्वप्न वासवदत्ता, रत्नावली, रूबाइयात उमर खय्याम