एक बार एक से जी स्वंय महामना मालवीय जी के पास अपने एक प्रीतिभोज में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए पहुँचे। महामना जी ने उनके इस निमंत्रण को इन विनम्र किंतु मर्मस्पर्शी शब्दों में अस्वीकार कर दिया-‘‘यह आपकी कृपा है, जो मुझ अकिंचन के पास स्वयं निमंत्रण देने पधारें, किंतु जब तक मेरे इस देश में मेरे हजारों-लाखों भाई आधे पेट रहकर दिन काट रहे हों तो मैं विविध व्यंजनों से परिपूर्ण बड़े-बड़े भोजों मे कैसे सम्मिलित हो सकता हूँ- ये सुस्वादु पदार्थ मेरे गले कैसे उतर सकते हैं।’’
महामना जी की यह मर्मयुक्त बात सुन से जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रीतिभोज में व्यय होने वाला सारा धन गरीबों के कल्याण हेतु दान दे दिया। बाद में उनका हृदय इस सत्कार्य से आनन्दमग्न हो उ ा।
अन्य लोगों के कष्टपीडि़त और अभावग्रस्त रहते स्वयं मौज-मस्ती में रहना मानवीय अपराध हैं।