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Sukhdev

Sukhdev
अंग्रेजी शासन से भारत की आजादी के लिए लड़ी गयी लड़ाई एक लंबी लड़ाई थी। आजादी की इस लड़ाई में भारतीय समाज के सभी वर्गों के लोगो ने अपना योगदान दिया और अंततः भारत आजाद हुआ। भारत की आजादी की लड़ाई में एक और जहां कुछ लोगों की भूमिका को काफी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया तो वहीं कुछ लोगो को नेपथ्य में छोड़ दिया गया या यूँ कहें कि इतिहास के पन्नों में योग्य स्थान नहीं दिया गया। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी हुए सुखदेव थापर थे जिन्हें भारतीय इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिली जिसके वह हकदार थे। उनकी बुद्धिमत्ता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि  अल्पायु में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले सुखदेव उस समय की महत्वपूर्ण क्रांतिकारी गतिविधियों सांडर्स हत्याकांड, असेंबली कांड और नौजवान भारत इत्यादि की रणनीति के मुख्य नायक थे।

महान क्रांतिकारी सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब के गोपरा, लुधियाना में हुआ था। सुखदेव के पिता का नाम रामलाल थापर और माता का नाम रल्ला देवी था। बचपन में ही इनके पिताजी की मृत्यु हो गयी थी जिसके बाद सुखदेव का पालन-पोषण ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। क्योंकि लाला अचिन्त राम आर्य समाज से प्रभावित थे, और इसका प्रभाव सुखदेव के जीवन में भी देखने को मिला। जलियांवाला बाग नरसंहार के उपरांत सन 1919 में पंजाब के हर एक शहर में आपातकाल लगा दिया गया था। साथ ही स्कूलों तथा कालेजों में छात्रों को ब्रिटिश अधिकारियों को सेल्यूट भी करना पड़ता था। सुखदेव ने ऐसा करने से मना कर दिया इसके लिए उनको सजा दी गई वह भी उस समय जब उनकी आयु केवल 12 वर्ष थी। 

सुखदेव ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लायलपुर में पूरी की तथा बाद आगे की पढ़ाई करने के लिये घर वाले इन्हे डीएवी कॉलेज में भेजना चाहते थे। लेकिन सुखदेव को कुछ छात्रों से पता चला कि राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने के लिए लाला लाजपत राय के द्वारा एक स्कूल खोला गया है। सुखदेव इस कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए अड़ गए और आखिरकार इन्होंने नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। नेशनल कॉलेज की स्थापना पंजाब क्षेत्र के नेताओं द्वारा की थी, जिसमें लाला लाजपत राय प्रमुख थे। साथ ही नेशनल कॉलेज के प्रबंधक का कार्यभार प्रख्यात क्रांतिकारी भाई परमानंद के पास था। 

इसी विद्यालय में जयशंकर विद्यालंकार इतिहास के शिक्षक के रूप में थे।  वह प्रसिद्ध पुस्तक ‘बंदी जीवन’ लिखने वाले सचिंद्र नाथ सान्याल के घनिष्ठ मित्र थे। नेशनल कॉलेज में प्रवेश लेने वाले अधिकांश विद्यार्थी वही थे, जिन्होंने असहयोग आन्दोंलन के दौरान अपने स्कूलों को छोड़कर इस आन्दोलन में भाग लिया था। सुखदेव की मुलाकात यहीं पर भगत सिंह से हुई। दोनों का झुकाव राष्ट्रभक्ति की ओर अटूट था जिसके कारण जल्द ही ये एक दूसरे के अच्छे दोस्त बन गए। अन्य विषयों की अपेक्षा इन दोनों को फ्रांस की क्रांति तथा इटली की क्रांति ने ज्यादा आकर्षित किया साथ ही इन लोगों ने कूका विद्रोह, गदर पार्टी, बब्बर अकालियों का विद्रोह, करतार सिंह सराभा इत्यादि के बारे में विद्रोह की गाथाएं पढ़ने में अधिक रुचि दिखाई।

असहयोग आंदोलन वापस ले लिए जाने से आंदोलनकारियों की इस नई पीढ़ी को बड़ी ही निराशा हाथ लगी। इसी समय कॉलेज में सुखदेव ने सचिन नाथ सान्याल की पुस्तक बंदी जीवन को पढ़ा जिससे वह बहुत अधिक प्रभावित हुए। सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार इत्यादि ने मिलकर 1926 में लाहौर में नौजवान सभा नामक एक संगठन की नीव रखी। इस संगठन का उद्देश्य असहयोग आंदोलन के उपरांत नौजवानों को ध्यान आकृष्ट करवाना था। 

नौजवान सभा के शुरूआती कार्यक्रमों में नैतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियां करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता इत्यादि पर विचार विमर्श किया जाता था। इसके साथ ही नौजवान सभा के प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा। कुछ मतभेदों की वजह से अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन करते हुए नौजवान सभा का नाम नौजवान भारत सभा कर दिया गया तथा इसका केंद्र अमृतसर को बनाया गया।

कुछ समय बाद नौजवान भारत सभा के प्रमुख क्रांतिकारियों की मुलाकात सितंबर, 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ हुई। इस गुप्त बैठक में एक केंद्रीय समिति का निर्माण किया गया जिसका नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ रखा गया। इस बैठक में सुखदेव को पंजाब के संगठन की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इसी समय सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद से संपर्क में आये एवं दोनो ने साथ मिलकर काकोरी कांड में गिरफ्तार हुए अभियुक्तों को छुड़ाने की रणनीति भी बनाई लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो सके।

फिर साइमन कमीशन के भारत आने पर इसका विरोध पूरे देश में हुआ एवं पंजाब में इसके विद्रोह का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। इसी दौरान जब लाहौर में एक बड़े जुलूस का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे तभी पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लाला जी घायल हो गए। लाठीचार्ज की चोटों के कारण 17 नवंबर, 1928 को लाला लाजपत राय जी का देहांत हो गया। जिसके बाद सुखदेव और भगत सिंह ने स्कार्ट को मारने की योजना बनायीं, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। चूँकि इस पूरी योजना के सूत्रधार भी सुखदेव ही थे, इसलिए उन्होंने भगत सिंह को सकुशल पंजाब से बाहर भी निकाला क्योंकि भगत सिंह को सांडर्स की हत्या करते हुए कुछ पुलिस वालों ने देख लिया था।

कुछ दिनों तक शांत रहने के बाद ब्रिटिश शासन की बहरी सरकार को अपनी आवाज सुनाने के लिए केंद्रीय एसेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया गया।  दरअसल इस समय अंग्रेजी सरकार ने दो प्रमुख कानूनों को प्रस्तुत किया। जिनमें से एक ट्रेड डिस्प्यूट्स से संबंधित था जिसके जरिए सरकार मजदूरों के अधिकारों को दबाना चाहती थी वही दूसरा पब्लिक सेफ्टी बिल था जिससे ब्रिटिश सरकार राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलना चाहती थी। जिनके एक सशक्त विद्रोह के रूप में केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट की योजना बनाई गई।

फिर 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली में केंद्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। जिससे ब्रिटिश शासन पूरी तरह बौखला गया तथा उन्होंने चारों ओर दमन का चक्र प्रारंभ कर दिया। शीघ्र ही सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। इन पर ब्रिटिश सरकार के द्वारा मुकदमा चला गया एवं सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को फांसी की सजा दी गई। इस समय इन क्रांतिकारियों ने लोकप्रियता के मायने में सभी आंदोलन के नेताओं को पीछे छोड़ दिया। पूरा देश एक स्वर में इन क्रांतिकारियों के साथ था तथा इन क्रांतिकरियों द्वारा देशवासियों के दिलों में जलाई गयी आजादी की आग उस समय देश के कोने कोने में पहुँच गयी। 

सुखदेव को गांधी जी की अहिंसा वादी नीति पर बिलकुल विशवास नहीं था। जिसका उनके द्वारा अपने ताऊजी और गांधीजी को लिखे गए पत्रों से साफ पता चलता है। उस समय देश की स्थिति को लोगो को बताते हुए सुखदेव क्रांतिकारियों के लिए कांग्रेस की मानसिकता को भी सभी के बीच रखते थे। गांधी जी अक्सर अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते रहते थे, जिस पर सुखदेव ने कटाक्ष करते हुए लिखा था कि ‘मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षो में कोई अधिक महत्व नहीं होता है और न ही आगे कभी हो सकता है।’

गांधी जी को सुखदेव द्वारा लिखे गए एक पत्र का अंश जो बाद में गांधी जी द्वारा प्रकाशित पत्रिका यंग इंडिया में प्रकाशित हुआ कुछ इस प्रकार है -“आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आंदोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 

1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बंदी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफना देने जैसी हालत में पड़े है। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।... एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ? 

सुखदेव ने यह भी लिखा कि, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे ब्रिटिश सरकार की सहायता करना होगा।”

सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता हैं, कि देशव्यापी विदोह और रोष के भय से 23 मार्च, 1931 को एक दिन पहले ही जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को अंग्रेजी शासन द्वारा फांसी पर लटका दिया गया था। भले ही उस दिन अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी हो लेकिन इन लोगों ने जो राष्ट्रवादी मशाल प्रज्वलित की उसकी रौशनी एवं ब्रिटिश कानों में जो आवाज उत्पन्न की उसकी गूंज बहुत दूर तक गयी थी। अंग्रेजों के मन में जिस भय और आशंका को पैदा करने के लिए भारत में क्रांतिकारी गतिविधियां प्रारंभ की गई वह आखिरकार भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु के अमर बलिदान के बाद सफल होने लगी थी।

 
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