एक युवक ने एक साधू से पुछा- ”अगर कोई बाधा आपको न हो तो मैं एक बात पूछना चाहता हूं. मैं प्रभु में उत्सुक हूं और उसे पाने का बहुत प्रयास किया है, पर कुछ परिणाम नहीं निकला. क्या प्रभु मुझ पर कृपालु नहीं है?”
मैंने कहा, ”कल मैं एक बगीचे में गया था. कुछ साथी साथ थे. एक को प्यास लगी थी. उसने बाल्टी कुएं में डाली. कुआं कुछ गहरा था. बाल्टी खींचने में श्रम पड़ा पर बाल्टी जब लौटी तो खाली थी. सब हंसने लगे.”
”मुझे लगा, यह बाल्टी तो मनुष्य के मन जैसी है. उसमें छेद ही छेद थे. बाल्टी नाममात्र की थी, बस छेद ही छेद थे. पानी भरा था, पर सब बह गया. ऐसे ही मन भी छेद ही छेद है. इस छेद वाले मन को कितना ही प्रभु की ओर फेंकों, वह खाली ही वापस लौट आता है.
”मित्र पहले बाल्टी ीक कर लें फिर पानी खींच लेना एकदम आसान है. हां, छेद वाली बाल्टी से तपश्चर्या तो खूब होगी, पर तृप्ति नहीं हो सकती है.”
”और स्मरण रहे कि प्रभु न कृपालु हैं, न अकृपालु. बस आपकी बाल्टी भर ीक होनी चाहिए. कुआं तो हमेशा पानी देने को राजी होता है. उसकी ओर से कभी कोई इनकार नहीं है.”