हम सब करीब-करीब सोए-सोए जीते हैं, सोए-सोए ही जागते हैं।
बुद्ध एक सुबह प्रवचन करते थे। कोई दस हजार लोग इकट्ठे थे। सामने ही बैठ कर एक भिक्षु पैर का अंगूठा हिलाता था। बुद्ध ने बोलना बंद कर दिया और उस भिक्षु को पूछा कि यह पैर का अंगूठा तुम्हारा क्यों हिल रहा है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा, पैर का अंगूठा हिलना बंद हो गया। उस भिक्षु ने कहा, आप भी कहां की फिजूल बातों में पड़ते हैं! आप अपनी बात जारी रखिए। बुद्ध ने कहा, नहीं; मैं यह पूछे बिना आगे नहीं बढूंगा कि तुम पैर का अंगूठा क्यों हिला रहे थे? उस भिक्षु ने कहा, मैं हिला नहीं रहा था, मुझे याद भी नहीं था, मुझे पता भी नहीं था।
तो बुद्ध ने कहा, तुम्हारा अंगूठा है, और हिलता है, और तुम्हें पता नहीं; तो तुम सोए हो या जागे हुए हो? और बुद्ध ने कहा, पैर का अंगूठा हिलता है, तुम्हें पता नहीं; मन भी हिलता होगा और तुम्हें पता नहीं होगा। विचार भी चलते होंगे और तुम्हें पता नहीं होगा। वृत्तियां भी उठती होंगी और तुम्हें पता नहीं होगा। तुम होश में हो या बेहोश हो? तुम जागे हुए हो या सोए हुए हो?
यदि हम गौर से देखें, तो आंखें खुली होते हुए भी हम अपने को होश में नहीं कह सकते। हमारा मन क्या कर रहा है इस क्षण, वह भी हमें ठीक-ठीक पता नहीं। अगर कभी दस मिनट एकांत में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें, और मन में जो चलता हो उसे एक कागज पर लिख लें--जो भी चलता हो, ईमानदारी से--तो उस कागज को आप अपने प्रियजन को भी बताने के लिए राजी नहीं होंगे। मन में ऐसी बातें चलती हुई मालूम पड़ेंगी कि लगेगा क्या मैं पागल हूं? ये बातें क्या हैं जो मन में चलती हैं? खुद को भी विश्वास नहीं होगा कि यह मेरा ही मन है जिसमें ये सारी बातें चलती हैं!
लेकिन हम भीतर देखते ही नहीं, बाहर देख कर जी लेते हैं। मन में क्या चलता है, पता भी नहीं चलता। और यही मन हमें सारी क्रियाओं में संलग्न करता है। इसी मन से क्रोध उठता है, इसी मन से लोभ उठता है, इसी मन से काम उठता है। इस मन के गहरे में न हम कभी झांकते हैं, न कभी इस मन के गहरे में जागते हैं। जो भी चलता है, चलता है। यंत्रवत, सोए-सोए हम सब कर लेते हैं।
अगर आपने कभी क्रोध किया हो, तो शायद ही आप यह कह सकें कि मैंने क्रोध किया है। आपको यही कहना पड़ेगा, क्रोध आ गया। आज तक किसी आदमी ने क्रोध किया नहीं है, क्रोध सदा आया है। आप क्रोध के कर्ता नहीं हैं, आप सिर्फ क्रोध के विक्टिम हैं, शिकार हैं। आप पूरी जिंदगी स्मरण करें तो यह नहीं कह सकते कि मैंने एक बार क्रोध किया था। क्रोध में, करने में आप मालिक नहीं थे। अगर मालिक होते तो आपने किया ही नहीं होता। कोई आदमी जान कर गङ्ढे में नहीं गिरता है। गिर जाता है, यह दूसरी बात है। किसी आदमी ने जान कर क्रोध भी नहीं किया है कभी। क्रोध हो जाता है, यह दूसरी बात है। क्रोध घटता है, क्रोध हम करते नहीं हैं। तो हम सोए हुए आदमी हैं या जागे हुए?
और प्रेम के संबंध में तो लोग कहते ही हैं कि प्रेम हमने किया नहीं, हो गया। लेकिन इसका मतलब क्या होता है कि प्रेम हो गया? इसका मतलब यह होता है कि जैसे हवाएं चलती हैं और वृक्ष के पत्ते हिलते हैं अवश-परवश, जैसे आकाश में बादल आते हैं और हवाएं उन्हें जहां उड़ा कर ले जाती हैं, चले जाते हैं, विवश। क्या वैसे ही हमारे भीतर भी चित्त में भावनाएं उठती हैं प्रेम की, क्रोध की, घृणा की और हम विवश होकर उनके साथ हिलते-डुलते रहते हैं? हमारा कोई वश नहीं है? हम अपने मालिक नहीं हैं?
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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