जैसे नदियां इधर-उधर भटकते हुए, समुद्र में मिलकर शांत हो जाती हैं, उसी प्रकार आत्मा भी परमात्मा में मिलकर खुद को उसी में समाहित कर देती है। पर ध्यान रहे कि संसार रूपी भवसागर को हम सद्गुरु रूपी नौका में सवार होकर ही पार कर सकते हैं।
हम वह आत्म तत्व हैं, जो अजर-अमर है। हमारा चैतन्य कभी नष्ट नहीं होता। सद्गुरु का दिव्य ज्ञान और हमारी श्रद्धा-भक्ति ही हमारे भीतर की शक्तियों को जागृत कर देवत्व तक पहुंचाती है। हमारे भीतर अनंत और तीव्र प्यास हो तो गुरु बादल बनकर उस पर अपनी कृपा की वर्षा करता है।
मत यकीन कर हाथों की लकीरों पर, किस्मत उनकी भी होती है, जिनके हाथ नहीं होते। इसलिए जिंदगी किस्मत के सहारे छोडने की बजाए, कर्म पर विश्वास करो। जब तक दूसरों के सहारे रहोगे, तब तक बेबसी पीछा नहीं छोडने वाली। जिस प्रकार घर, कपडों व शरीर की सफाई होती है, उसी प्रकार मन की सफाई भी। कारण मन रूपी निर्मल-स्वच्छ सिंहासन पर भगवान विराजमान होते हैं।