कुछ लोग कहते हैं धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:! अर्थात जो सबको संभाले हुए है। सवाल उठता है कि कौन क्या धारण किए हुए हैं? धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी।
संस्कार है धर्म? : कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक संस्कारों से ही धर्म की पहचान है अर्थात संस्कार ही धर्म है। संस्कार से ही संस्कृति और धर्म का जन्म होता है। संस्कार ही सभ्यता ही निशानी है। संस्कारहीन व्यक्ति पशुवत और असभ्य है।
तब जनाब हम कह सकते हैं कि किसी देश या सम्प्रदाय में पशु की बलि देना संस्कार है, शराब पीना संस्कार है और अधिक स्त्रियों से शादी करना संस्कार है तो क्या यह धर्म का हिस्सा है। हमने ऐसे भी संस्कार देखे हैं जिन्हें दूसरे धर्म के लोग रुढ़ी मानकर कहते हैं कि यह असभ्यता की निशानी है। दरअसल संस्कारों का होना ही रूढ़ होना है!
ज्ञानीजन कहते हैं कि धर्म तो सभी तरह के संस्कारों से मुक्ति दिलाने का मार्ग है तो फिर संस्कारों को धर्म कैसे माना जा सकता है। कल के संस्कार आज रूढ़ी है और आज के संस्कार कल रूढ़ी बन जाएंगे। हिंन्दुस्तान में कितने ब्राह्मण हैं जो जनेऊ धारण करते हैं, चंदन का तिलक लगाकर चोटी रखते हैं? पूरा पश्चिम अपने संस्कार और परिधान छोड़ चुका है तो फिर हिन्दुस्तान को भी छोड़ना जरूरी है? संस्कार पर या संस्कार की परिभाषा पर सवाल उठाए जा सकते हैं।
कथित साम्प्रदायिक शक्तियों से पूछो की धर्म क्या हैं तो शायद वे कहेंगे कि हम साम्प्रदायिक नहीं राष्ट्रवादी है और सर्वधर्म सम भाव की भावना रखना ही धर्म है।
अब हम बात करते हैं साम्प्रदायिकों और कट्टरपंथियों की। पहला दूसरे के खिलाफ क्यों हैं? क्योंकि दूसरा पहले के खिलाफ है। हमारे धर्म में जो लिखा है वह तुम्हारे धर्म से कहीं ज्यादा महान, सच्चा और पवित्र है। जबकि उन्होंने दूसरे के धर्म को पढ़ा ही नहीं हो फिर भी वे दावे के साथ अपने धर्मग्रंथों को दूसरे के धर्मग्रंथों से महान बताते हैं।
क्या यह है धर्म ?
धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है। जब भी हम धर्म कहते हैं तो यह ध्वनीत होता है कि कुछ है जिसे जानना जरूरी है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म है अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना।
धर्म का मर्म
रहस्य यह है कि सभी आध्यात्मिक पुरुषों ने अपने-अपने तरीके से आत्मज्ञान प्राप्त करने और नैतिक रूप से जीने के मार्ग बताए थे। असल में धर्म का अर्थ सत्य, अहिंसा, न्याय, प्रेम, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्ति का मार्ग माना जाता है। लेकिन अर्द्धज्ञानी पंडितों, घंटालों और मुल्ला-मौलवियों की भरमार ने धर्म के अर्थ को अधर्म का अर्थ बनाकर रख दिया है।
आप लाख कितना ही किसी को भी समझाओं की दुनिया के सारे संप्रदाय एक ही तरह की शिक्षा देते हैं। उनका का इतिहास भी सम्मलित है, लेकिन फिर भी वे दूसरे के संप्रदाय से नफरत ही रखेंगे। इसका सीधा सा कारण है प्रत्येक अधार्मिक व्यवस्थाओं को धर्म मान लिया गया है।
हिन्दू धर्म में धर्म को एक जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को। दुनिया के तमाम विचारकों ने -जिन्होंने धर्म पर विचार किया है, अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। इस नजरिए से
वैदिक ऋषियों का विचार सबसे ज्यादा उपयुक्त लगता है कि सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं।
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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