आत्मा का विकास ही सच्चा धर्म...
हम सबके मन में कभी न कभी यह प्रश्न आता होगा कि वास्तव में धर्म क्या है? हमारे जीवन में धर्म धारण करने का क्या उपाय है? क्या किसी मन में दीक्षित हो जाना धार्मिक बनने की पहचान है? आमतौर पर धर्म को मत-मतांतरों से जोड़ दिया गया है।
असल में धर्म बाहर की वस्तु नहीं यह भीतर का विकास है, उसे समाज में नहीं, व्यक्ति के अंतराल में ढूंढ़ा जाना चाहिए। धर्म व्यक्ति और व्यष्टि के बीच में तादाम्य की फलश्रुति है, जब कि व्यक्ति और समाज के मध्य का संबंध संप्रदाय कहलाता है। धर्म और संप्रदायवाद में उतना ही अंतर है जितना जीवन और मृत्यु। जहां धर्म होगा, वहां सर्वत्र सुगंधि बिखरती रहेगी, जहां संप्रदायवाद होगा, वहां सड़न और दुर्गंध होगी। करुणा उदारता, सेवा सहकारिता, यह तो जीवन की सहचरी और चैतन्यता के लक्षण हैं।
धर्म और संप्रदाय में यदि कोई अंतर है तो उसे उतना ही विशाल होना चाहिए जितना कि आकाश और पाताल क्योंकि धर्म हमें ऊंचाइयों के प्रति श्रद्धावान बनाता है और इस बात की प्रेरणा देता है कि हमारा अंतराल अहंकारपूर्ण नहीं अहंशून्य होना चाहिए। जहां अहमन्यता होगी, विवाद और विग्रह वहीं पैदा होंगे। जहां सरलता होगी वहां सात्विकता पनपेगी। सरल और सात्विक होना दैवी विभूतियां हैं। जो इन्हें जितने अंशों में धारण करता है, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे उस अनुपात में धार्मिक हैं।
इसलिए यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि धर्म हमें देवत्व की ओर ले चलता है, जबकि संप्रदाय अधोगामी भी बनाता है। कट्टरवाद, उग्रवाद यह सभी संप्रदायवाद की देन है। सांप्रादायिक होने का मतलब है कूपमंडूक होना, केवल अपने वर्ग एवं समूह की ही चिंता करना। इसके अतिरिक्त धर्म अधिक उदार बनाता तथा आत्मविस्तार का उपदेश देता है। 'आत्मवत सर्वभुतेषु एवं वसुधैव कुटुम्कबम' यह इसी की शिक्षा है।