बहुत बड़े धनी और विद्वान् जमींदार की एक बार किसी महात्मा से भेंट हो गयी । महात्मा बड़े त्यागी थै । जमींदार ने उन्हें एक लँगोटी का कपड़ा देना चाहा, परन्तु महात्मा आवश्यकता न होने से स्वीकार नहीं किया । कुछ समय तक साधु-संग करने पर जमींदार के मन में भी वैराग्य का भाव आया और उसे त्याग की महत्ता दिखायी दी ।
इसपर उसने महात्मा से कहा -’स्वामी जी महाराज ! आपको और आपके त्याग को धन्य है !”
महात्मा ने बहुत विनय के साथ मधुर शब्दों में कहा - ‘भाई ! बेसमझ लोग मुझे भले ही त्यागी कहकर मेरी प्रशंसा करें, असल में मैं तो बड़ा स्वार्थी हूँ । तुम्हारे-सरीखा सुशिक्षित पुरुष मुझे त्यागी कैसे बता सकता है ? मैं तो सदा रहने वाले सर्वोपरि अमूल्य धन की चाह करता हूँ और उसके लिये मैंने नगण्य विनाशी वस्तुओं को छोड़ा है । वस्तुतः त्यागी तो तुम हो जो उस असली धन की बात जानने पर भी उसके लिये कोई प्रयत्न नहीं करते ।’