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त्रियाचरित्र

 

एक बार एक सन्यासी ने सालों हिमालय पर रहकर चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। उनकी प्रतिभा से उनके गुरु बहुत खुश हुए।


उन्होंने अपने शिष्य से कहा, "तुम्हारा ज्ञान अब अपार है और अब तुम्हारा कर्त्तव्य बनता है कि आप गाँव-गाँव जाकर अपने ज्ञान से लोगों को शिक्षा दो और उनका उद्धार करो।"


गुरु के आदेश को अध्यादेश मानकर सन्यासी महाराज ने अपना रुख गाँव की तरफ कर लिया। कई दिन की पदयात्रा के बाद वो एक गाँव पहुँचे और गाँव के बाहर उन्होंने अपनी एक कुटिया बना ली। उसमें ही उन्होंने एक छोटा सा मंदिर भी बना लिया और वे रोज के रोज रामायण का पाठ तो कभी भागवत-गीता का पाठ करने लगे।


धीरे-धीरे गाँव के लोगों की नज़र उन पर पड़ने लगी। धीरे-धीरे लोगों का आना भी शुरू हो गया। समय के साथ गुरुजी की लोकप्रियता बढ़ने लगी। जब लोगों की श्रृद्धा बढ़ी तो उसके साथ गाँव वालों का सेवा-भाव भी बढ़ गया। अब तो रोज के रोज उनके लिए कभी इस घर से तो कभी उस घर से खाना आता। लोग उनके प्रवचन सुनने के लिए बेताब रहते। धीरे-धीरे उनके मंदिर में चढ़ावा भी अच्छा आने लगा। अब तो उनके सेवादार भी हो गए थे। गाँव की बहू-बेटियाँ उनके पास बेहिचक आकर बैठ जातीं और वो ही उनकी कुटिया की साफ-सफाई भी कर दिया करती थी। गाँव में उनका समय बहुत ही शान्ति और इज्ज़त से बीत रहा था पर कभी-कभी उनके मन को एक खयाल कचोट जाता। वो ये था कि जब वो अपनी शिक्षा पूरी कर जब अपने ज्ञान का प्रचार करने तथा लोगों को धर्म और कर्म का ज्ञान देने चले थे तो उनके गुरुजी ने उनसे कहा था, " बेटा, ज़िंदगी में एक बात का हमेशा ध्यान रखना। कभी भी `त्रियाचरित्र` के चक्कर में मत पड़ना। क्योंकि यदि वहाँ फँसे तो निकलना मुश्किल हो जायगा। तुम्हारा काम लोगों को ज्ञान और धर्म का मार्ग दिखाना है। कभी भी अपनी राह से मत भटकना।"


शिष्य ने इस बात पर उनसे पूछा, "गुरुजी, आप मुझे कुछ तो त्रियाचरित्र का ज्ञान दीजिये। इस बारे में मैं भी तो कुछ जान लूँ।"


तब गुरुजी ने कहा, "जिस चीज़ को देव और देवता नहीं जान पाये उसको तुम कैसे जान सकते हो? बस मेरी शिक्षा ये है कि हमेशा त्रियाचरित्र से बच कर रहना।"


लेकिन जब से गुरुजी इस गाँव में आये हैं, उन्होंने ये पाया कि गाँव की कन्याएं बहुत ही सीधी-सादी तथा सेवा-भाव से भरपूर हैं। वो किसी वस्तु की चाहत करें, इससे पहले ही वो उनके मन की बात समझ जातीं और उनकी हर इच्छा कहने से पहले ही पूरी हो जाती। वो मन ही मन सोचते कि सारी की सारी गाँव की महिलायें और बेटियाँ कितनी सभ्य हैं। पता नहीं गुरुजी ने क्यों उनको उनसे बचने के लिए कहा था और वो इस सवाल को लेकर काफी परेशान हो जाते थे।


एक दिन उन्होंने मन में ठान ही ली कि वो इसका पता लगाकर रहेंगे कि क्यों गुरुजी ने उनसे इस `त्रियाचरित्र` से बचने को कहा था। बहुत सोच-विचार कर उनकी नज़र अपनी एक भक्त कन्या पर पड़ी जो बहुत ही सेवा-भाव से रोज उनके लिया भोजन लेकर आती थी। उन्होंने मन ही मन उस से अपनी इस उत्सुकता का समाधान प्राप्त करने का निश्चय किया। हिम्मत कर के एक दिन उससे पूछ ही लिया, "बेटी, मैं बहुत दिन से एक समस्या को उलझाने में लगा हूँ। क्या तुम इसमें मेरी मदद कर सकती हो ?"


लड़की तुरंत ही हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी और बोली, "गुरूजी में आपकी हर समस्या का हल ढूंढ़ने में आपकी मदद करने की पूरी कोशिश करुँगी, आप बताइये?"


गुरूजी ने कहा, "मैं जानना चाहता हूँ कि त्रियाचरित्र क्या होता है? ऐसी क्या खास बात है जो हमेशा लोग कहते हैं कि इसको समझ पाना बहुत ही मुश्किल है? बिटिया, क्या तुम मुझे इसका ज्ञान दे सकती हो?"


बिचारी बिटिया चुप हो गयी और अपना सिर घुमाकर चली गयी। लेकिन अब जब भी वो रोज खाना ले कर आती तो गुरुजी हमेशा यही सवाल पूछते। और इस तरह कई दिन निकल गए पर गुरुजी कि उत्सुकता कम न हुयी और एक दिन शाम के वक्त गुरुजी अपने प्रवचन कर के चुके थे। लोग गुरुजी कि कुटिया के बाहर थे। वो लड़की रोज कि तरह गुरुजी का खाना ले कर आयी। गुरुजी अपने आसन पर आराम फरमा रहे थे। जैसे ही उन्होंने लड़की को देखा और कहा, "बिटिया, आज तो बता दो कि त्रियाचरित्र क्या होता है?"


अचानक उस लड़की ने आव देखा न ताव उसने खाना ज़ोर से जमीन पर फेंक दिया और ज़ोर-ज़ोर से चीखने और चिल्लाने लगी। जैसे ही लोगों ने उसके चीखने और चिल्लाने कि आवाज़ सुनी तुरंत भागकर अंदर आये। जैसे ही सब अंदर आये लड़की ने रोते हुए गुरुजी की तरफ इशारा कर दिया। बस, फिर क्या था! वो नज़ारा पैदा हो गया जो गुरुजी ने कभी जिंदगी में भी नहीं सोचा होगा। जो हाथ गुरुजी के पैर छूते नहीं थकते थे वो आज गुरुजी के ऊपर तड़ा-तड़ पड़ पर रहे थे। जो हाथ गुरुजी की कुटिया कि सफाई करते थे वो आज उसको उजाड़ने में लगे थे और फिर थोड़ी ही देर में जो कुटिया चमन होती थी उजड़ गयी। सो तो गुरुजी ने कई बार सुना था कि लोगों को दिन में तारे दिखायी देते हैं पर उस दिन उनकी आँखों के सामने तारे नाच रहे थे।


तभी अचानक लड़की जोर से चिल्लाई, "रुकिए, ये आप लोग क्या कर रहे है?"


भीड़ रुक गयी और अचरज से लड़की को देखने लगी। लड़की बोली, "आप लोग इनको क्यों मार रहे हो?"


भीड़ में से एक जनाब बोले, "तुमने ही तो ईशारा इनकी तरफ किया था और तुम रो रही थी। देखो बिटिया, तुम डरो मत ऐसे ढोंगी तो हमने बहुत देखे हैं। हम इनका अभी ही इसी वक्त सारा का सारा ज्ञान धो डालेंगे।"


उधर बेचारे गुरुजी अब तक नीले, पीले, हरे और गुलाबी सारे के सारे रंग देख चुके थे और डर के मारे थर-थर काँप रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि आज तो उनका राम नाम सत्य हो गया।


तभी लड़की बोली, "आप लोग इन गुरुजी को क्यों मार रहे हो? मैं तो इसलिए चीखी और चिल्लाई थी कि मैंने गुरुजी के आसन के पास एक भुंजग काला नाग देखा था और मैं डर गयी। आप लोग अंदर आये तो मैंने आप लोगो को ईशारे से बात बतानी चाही पर आप लोगों ने मेरी बात पर ध्यान न देकर गुरुजी कि पिटाई शुरू कर दी।"


ये सुनकर सबके सर शर्म से झुक गए और फिर वही हाथ जो तड़-तड़ पड़ रहे थे तुरंत गुरुजी के पैरों पड़ गए। बेचारे गुरुजी इस सुबह और शाम को समझ ही नहीं पाये। थोड़ी ही देर में उनकी कुटिया जिन लोगों ने उजाड़ी थी फिर सँवार दी और गुरुजी से माफ़ी माँगकर अपने-अपने घर को चले गए।


गुरुजी अभी तक समझ ही नहीं पा रहे थे कि हुआ क्या। इतने में वही कन्या फिर से कुटिया में दाखिल हुई। इस बार उसके हाथ में हल्दी वाला दूध था। उसको देखकर बेचारे गुरूजी कि सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। लड़की ने गुरुजी के पास दूध रखा और बोली, "महाराज, मुझे माफ़ करिएगा पर आप ही बार-बार कह रहे थे कि त्रियाचरित्र के बारे में बताओ। मैंने आपको इसका रूप दिखा दिया है क्योंकि इसको समझा नहीं जा सकता।"


उधर गुरूजी थर-थर काँप रहे थे इस घटना ने उनका सारा का सारा भ्रम जो उनको अपने बारे में था, तोड़ डाला था। लड़की दूध रखकर चली गयी।


बेचारे गुरुजी सारी रात सो न पाये। उन्हें लग रहा था कि उनका सारा का सारा ज्ञान अधूरा है और उनको सारे वेद फिर से पढ़ने पड़ेंगे और ये सोचकर वो रातोंरात अपना सामान बाँधकर दोबारा हिमालय चले गए।

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