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प्रेम की छाया

 

जहां प्रेम की छाया पड़ी वहीं परमात्मा प्रकट होता है

वही पुरुष, स्त्री के प्रेम के लिए राजी हो सकता है
जो अहंकार को छोड़ने को राजी हो। 
यह पुरुष के लिए बहुत कठिन है। 
इसका एक ही उपाय है

उसके लिए, ध्यान ; 
कि वह गहरे ध्यान में उतरे।
तो मेरे देखने में ऐसा है 
कि अगर पुरुष गहरे ध्यान में उतर जाए, 
तो ही प्रेम के योग्य हो पाता है। 
और स्त्री अगर प्रेम में उतर जाए, 
तो ही ध्यान के योग्य हो पाती है।

स्त्री सीधे ध्यान न कर सकेगी। 
तुम उसे लाख समझाओ कि चुप होकर शांत बैठ जाओ, 
वह कहेगी, लेकिन किसके लिए ? 
किसको याद करें ? किसका  स्मरण करें ? 
किसकी प्रतिमा सजाएं ? किसका रूप देखें भीतर ?

मंदिरों में जो प्रतिमाएं हैं वे सभी स्त्रियों ने रखी हैं। 
परमात्मा के नाम के जितने गीत हैं वे सब स्त्रियों ने गाए हैं।
भजन है, कीर्तन है, उसका अनूठा रस स्त्रियों ने लिया है। 
और पुरुष और स्त्री के बीच बड़ी बेबूझ पहेली है।
वे एक-दूसरे को समझ नहीं पाते हैं। 
समझें भी कैसे ? 
तुम जिस स्त्री के साथ जीवनभर रहे हो, 
या जिस पुरुष के साथ
जीवनभर रहे हो, उसको भी समझ नहीं पाते। 
क्योंकि भाषा अलग है,
यात्रा अलग है ; 
दोनों के सोचने का, होने का ढंग अलग है।

जब भी स्त्री भाव में होती है, आख  बंद कर लेती है। 
क्योंकि जब भी भाव में होती है तब वह अंतर्मुखी हो जाती है।

वह प्रेम भी जिस व्यक्ति को करती है, 
उसको भी जब ठीक से देखना चाहती है 
तो आख बंद कर लेती है। 
यह भी कोई देखने का ढंग हुआ!!!
मगर यही स्त्री का ढंग है।
क्योंकि ऐसे आख बंद करके ही 
वह उस चिन्मय को देख पाती है, 
आँख खोलकर तो मृण्मय दिखायी पड़ता है।

स्त्री जब भी किसी को प्रेम करती है 
तो परमात्मा से कम नहीं मानती। 
आँख बंद करके परमात्मा  दिखायी पड़ता है। 
आंख खोलो तो मिट्टी की देह है।

लेकिन पुरुष का रस 
भीतर में कम है, बाहर में ज्यादा है। 
पुरुष आँख खोलकर प्रेम करना चाहता है। 
प्रेम के क्षण में भी चाहता है कि रोशनी हो, 
ताकि वह स्त्री की देह को ठीक से देख सके। 
तो पुरुषों ने तो स्त्रियों की नग्न मूर्तियां बहुत बनायी हैं, 
स्त्रियों ने पुरुषों की एक भी नग्न मूर्ति नहीं बनायी। 
और पुरुषों ने तो स्त्रियों के नाम पर कितना अश्लील पोनोंग्रेफी,
और साहित्य, और चित्र, और पेंटिंग्स की हैं।

स्त्रियों ने एक भी नहीं की। 
क्योंकि पुरुष का रस देह में है, 
रूप में है, रंग में है, बहिर में है।

स्त्रियों को तो भरोसा ही नहीं आता 
कि शरीर के चित्रण में इतनी उत्सुकता क्यों है ? 
क्योंकि स्त्री को तो शरीर के पार के देखने की सुविधा है। 
उसके पास एक झरोखा है, जहा से वह देह को भूल जाती है
और परमात्मा को देख लेती है।

पुरुषों ने नहीं समझाया है 
स्त्री को कि पति परमात्मा है। 
यह स्त्रियों की प्रतीति है ;
कि जिसको भी उन्होंने प्रेम किया उसमें परमात्मा देखा। 
जहा प्रेम की छाया पड़ी, वहीं परमात्मा प्रगट होता है। 
जहां प्रेम की भनक आयी, वहीं परमात्मा के आने का प्रारंभ हो जाता है।

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