बुद्ध ने छह वर्ष की तपस्या की। जो करने योग्य था किया जो भी किया जा सकता था किया। कुछ भी अनकिया न छोडा जिसने जो कहा वही किया। जिस गुरु ने जो बताया उसको समग्र मनभाव से किया तन प्राण से किया। रत्तीभर भी अपने को बचाया नहीं। सब तरह अपने को दांव पर लगा दिया!
ऐसी स्थिति की अंतिम घडी में जहा संकल्प अपने शिखर पर पहुंचता है और जहा से आदमी मन से मुक्त होता है, तो मन आखिरी हमले करता है। स्वाभाविक। जिस मन के साथ हम वर्षों रहे, जन्मों रहे और जिस मन की हम पर मालकियत रही, वह मालकियत यूं ही नहीं छोड़ देता। कौन मालकियत यूं ही छोड़ देता है!
अगर तुम्हारा नौकर भी तुम छुड़ाना चाहो तो वह भी आसानी से नहीं छोड़ता, तो मालिक की तो बात ही और। नौकर छोड़ने को आसानी से राजी नहीं होता तो मालिक मालकियत छोड़ने को कैसे राजी होगा! और अगर नौकर कहीं भूल चूक से मालिक बन बैठा हो, तब तो फिर छोड़ने की बात ही नहीं। और यही हुआ है। मन नौकर है, बन बैठा मालिक है। तो अगर नौकर सिंहासन पर बैठ जाए तो फिर आसान नहीं है उतारना।
अगर गुलाम कभी मालिक बन जाए तो बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। क्योंकि वह जानता है कि मैं हूं तो गुलाम और यह जो थोड़ी सी घड़ियां मुझे मिल गयी हैं, अगर इनका उपयोग न कर लिया तो फिर का फिर गुलाम हो जाऊंगा। नौकर अगर मालिक जन्मों तक रहा हो, तब तो बहुत कठिन है उसे हटा देना। और वही स्थिति है मन की।
तो जब कोई साधक अपने अंतिम शिखर पर पहुंचता साधना के, तो मन आखिरी जद्दोजहद करता है, आखिरी संघर्ष होता है कुरुक्षेत्र। अंतिम निर्णायक युद्ध होता है। उस निर्णायक युद्ध को अनेक अनेक प्रतीकों से कहा गया है।
मुसलमान कहते हैं शैतान हमला करता है। वह शैतान मन है। ईसाई कहते हैं डेविल, बीलझेबब हमला करता है। वह बीलझेबब कोई और नहीं, मन है। हिंदू कहते हैं कामदेव। और स्वभावत: हिंदुओं के पास सबसे श्रेष्ठ कथाएं हैं। क्योंकि उन्होंने खूब परिमार्जित किया है। दस हजार साल तक परिमार्जन किया है। .गैसें की कथाएं नयी नयी हैं, उनमें कई भूल चूके मिल जाएंगी, लेकिन हिंदुओं ने तो खूब परिमार्जन किया है। इसके पहले कि हिंदुओं की कथाएं लिखी गयीं, हजारों साल तक वे कथाएं बुद्धिमानों के हाथ से गुजरती रहीं, उन पर परिमार्जन होता रहा।
तो हिंदुओं की कामदेव की कथा बड़ी अदभुत है, उसमें पहली तो बात यह कि वह अनंग हैं, उनकी कोई देह नहीं। यही तो मन है। मन की कोई देह थोड़े ही है। मन अदेही है। इसीलिए तो मन को कहीं भी जाने में देर नहीं लगती। तुम्हें दिल्ली जाना, समय लगे, कलकत्ता जाना, समय लगे, मन, यह गया। अदेही है, न कोई ट्रेन, न मोटर, न हवाई जहाज, किसी की कोई जरूरत नहीं। सोचा नहीं कि गया नहीं। क्षण भी बीच में टूटता नहीं समय नहीं लगता। देह अगर मन की होती तो समय लगता।
हिंदुओं की कथा अदभुत है कि शिव को काम ने बहुत ज्यादा पीड़ित किया, परेशान किया तो वह नाराज हो गए और उन्होंने आंख अपनी, तीसरा नेत्र खोल दिया। उस तीसरे नेत्र के कारण जलकर भस्म होकर काम का जो शरीर था वह गिर गया। तब से वह अनंग है। उसके पास देह नहीं है।
यह कथा भी प्यारी है कि तीसरे नेत्र के खोलने से काम जल गया। तीसरे नेत्र के खुलने पर ही काम जलता है। तीसरे नेत्र के खुलने का अर्थ है, अंतर्दृष्टि उपलब्ध हो गयी, भीतर की आंख खुल गयी। जब तक भीतर की आंख बंद है, तभी तक काम का तुम पर प्रभाव है। भीतर की आंख खुल गयी, काम का प्रभाव समाप्त हो गया। भीतर तुम सोए हो, इसलिए काम तुम्हें फुसला लेता है, राजी कर लेता है। भीतर जाग गए, फिर तुम्हें कोई राजी न कर सकेगा |
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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