वृन्दावन में माध्वगौणीयसम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मंदिरों में श्रीराधारमणदेवजूके मंदिर का विशिष्ट महत्व है। उनका प्राकट्य-वृत्त अत्यंत रोचक है। श्रीराधारमणलालश्रीगोपालभट्टगोस्वामी के सेवित विग्रह हैं। गौरांग महाप्रभु के वृन्दावनस्थषड्गोस्वामियों(श्रीरूप, सनातन, जीव, गोपालभट्टव रघुनाथदासजी)में गण्यमानश्रीगोपालभट्टजीकी भगवन्निष्ठाएवं अप्रतिम भगवद्अनुराग को उनके अलौकिक आविर्भाव का सम्पूर्ण श्रेय है।
दक्षिण भारत स्थित श्रीरंगम्के बेलंगुडिग्राम निवासी अनन्य वैष्णव भक्त श्रीव्यंकटभट्टएवं माता सदम्बाजीके घर वि.सं.1557,माघ कृष्ण तृतीया को उत्पन्न गोपालभट्टकी बाल्यावस्था में ही श्रीचैतन्यमहाप्रभु से भेंट हुई।
उनकी आज्ञा का अक्षरश:अनुपालन करते हुए उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया और माता-पिता के मृत्योपरान्तश्रीवृन्दावनधामजाकर श्रीरूप-सनातनजीके सान्निध्य में भक्तिग्रन्थोंका अध्ययन, व्रज के लुप्त लीला-स्थलों का अन्वेषण, वैष्णव ग्रन्थों का प्रणयन एवं भक्ति के प्रचार का बीडा उठाया। वि.सं.1590में तीर्थाटन-काल में गण्डकीनदी में स्नान करते समय प्राप्त श्रीदामोदर-लक्षणयुक्तविलक्षण शालिग्रामशिला की वृन्दावन में कर्मठतापूर्वक सेवा-अर्चना करने लगे। किंतु श्रीरूपगोस्वामीके गोविन्ददेवजी, श्रीसनातनगोस्वामी के मदनमोहनजी व श्रीमधुपण्डितके गोपीनाथजी की मनोरम झांकी निहारकर सर्वाग श्रृंगार कला निष्णात् पूज्यपाद् सदैव मुग्ध एवं लालायित रहते। सेव्य शालिग्रामजीका अपेक्षित श्रृंगार न कर पाने की विवशता से क्षुब्ध अन्तर्मन में निज व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति दृष्टव्य है-
झूलौझूलौमोरेगण्डकि-नन्दन।
जैसे कढी पकौडी घोर्यो,ऐसे लिपट्योचन्दन॥
हांथन पांयनैन नहिंनासा, ध्यानहिंहोत अनन्दन।
जालन्धर अरुवृन्दावल्लभ,करतकोटि हौंवन्दन॥
ऐसी स्थिति में नीलांचल जाकर श्रीमन्महाप्रभुके दर्शन की तीव्र व्याकुलता के उत्तरोत्तर बढते हुए विरह में परिणित हो जाने पर गौरांग महाप्रभु ने कृपा-प्रसादी स्वरूप डोर, कोपीन,बहिर्वास,पीठासनव स्वयं की हस्तलिखित सन्देश-पत्रिका उनके पास वृन्दावन भेजी। संयोगवश एक धनवान व्यापारी ने वृन्दावन के समस्त श्रीविग्रहोंके लिए बहुमूल्य वस्त्राभरणभेंट किए। श्रीनृसिंहावतारकी लीला से अभिभूत आचार्यपाद्रात्रिपर्यन्तप्रलाप करते रहे। अन्यान्य विग्रहोंकी भांति सेव्य शालिग्रामजीके हस्त-पद-मुखारविन्द होने पर उन्हें वस्त्रालंकारसे भली-भांति विभूषित करने की अति तीव्र उत्कण्ठा अन्तस्तल में स्फुरित होते ही ये यथामाम्प्रपद्यन्तेतांस्तथैवभजाम्यहम्से संकल्पबद्ध भक्तवांछा-कल्पतरुश्रीठाकुरजीकी कृपावशवि.सं.1599,वैशाख पूर्णिमा (श्रीनृसिंह चतुर्दशी) को प्रात:ब्रह्म मुहूर्त में नित्य-सेवा हेतु उपस्थित होने पर सेव्य शालिग्रामजीका अति मनोहर ललित त्रिभंगद्विभुजधारीमुरलीधर स्वरूप निहारकर धन्य हो गए। प्रभु-कृपा का ध्यान आते ही नेत्र सजल हो गए। उन्होंने श्रीविग्रहको नानाविधवस्त्रालंकारोंसे विभूषित कर झूले में झुलाया, और अत्यंत लाडपूर्वकभोगरागअर्पित किया। श्रीविग्रहके अभिषेक महोत्सव उपरान्त नामकरण हुआ- श्रीराधारमणदेव और आह्लादितअन्तर्मन में भावसिक्तअधोलिखित स्वर-लहरी गुंजायमान हो उठी-
श्रीराधारमणहमारे मीत।
ललित त्रिभंगी श्याम सलोने, कटि पहिरेपट पीत॥
मुरलीधर मन हरनछबीले, छके प्रिया की प्रीत।
गुन मंजरी विदित नागरवर,जानतरस
की रीत॥
व्रजरसिकोंके प्राणधनश्रीराधारमणदेवके श्रीविग्रहको प्रेमी भक्तजन् श्रीजी कहकर सम्बोधित करते हैं। प्राकट्य-स्थल दोलस्थली कहलाता है। वि.सं.1751में दिल्ली निवासी अग्रवाल सेठ ने श्रीराधारमणजीका प्राचीन मंदिर, और सम्वत्1879में लखनऊ नवाब के प्रमुख जौहरी शाह बिहारीलाल ने श्रीजीका कलात्मक वर्तमान मंदिर निर्मित कराया। मंदिर के समीप ही दक्षिण में श्रीगोपालभट्टजीकी समाधि व श्रीराधारमणदेवजूका प्राकट्य-स्थल दर्शनीय हैं। विशेष उल्लेखनीय है कि औरंगजेबके अत्याचार के समय उक्त श्रीविग्रहवृन्दावन के भीतर ही सुरक्षित रहा। वैशाख मास की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष ठाकुर श्रीराधारमणजीका प्राकट्य-महोत्सव अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। स्वनामधन्य श्रीराधारमणदेवजूके अप्रतिम सौन्दर्य एवं अनन्त माधुर्य की मनोरम झांकी का आस्वादन कर रसिक भक्तगण कृतकृत्यहो जाते हैं।