एक विद्वान थे उन्हे तमाम उपाधियों प्राप्त थीं उनका नाम था
महामहोपाध्याय महापंडित रघुनाथ परचुरे शाश्त्री विद्यावाचस्पति विद्यावारिधि
कहते हैँ अतिसार लालसा की जन्मदाता है अतः वे परमतत्व के ज्ञान की खोज में निकल पड़े
तमाम तीर्थ देवमन्दिर इत्यादि भ्रमण करते रहे हर जगह उन्हे रोचकता भव्यता धन सम्पत्ति सुख सुविधायें तो नजर आ रही थीं परन्तु वो परमतत्व अर्थात आत्मिकशांति नही मिल रही थी
वे भ्रमण करते करते हिमालय के एक वन में एक ऋषि के आश्रम पहुँच गये ऋषि ने उनसे आने का प्रयोजन व उनका नाम पूछा
जैसे ही उन्होंने अपऩा अलंकरण सहित पूरा ऩाम बताया तो ऋषि हँस पड़े
ऋषि बोले कि रघुनाथ तुम जो ज्ञान की इतनी बड़ी ग री लादे घूम रहे हो तो ये जानो कि भरी गागर में ताजा जल कैसे भरेगा ?
ऋषि ने पूछा कि क्या तुम प्रेम से परिचित हो ? क्या प्रेम मेँ डूबा हुआ हृदय ही उसका मन्दिर नही है ?
क्या जो प्रेम को छोड़कर उसे कहीं और खोजता है तो क्या वह व्यर्थ ही ऩही है ?
जो परमात्मा को खोजता है वो उन्हे तो पाता नही अपितु प्रेम भी खो बै ता है किन्तु जो प्रेम को पाता है वह परमात्मा को भी पा जाता है । परमात्मा को छोड़ो प्रेम को पाओ मंदिर को भूलो हृदय को खोजो क्योंकि वह परमात्मा तो वहीं है ।
एक सच है साम्राज्य छोड़ना सरल है किन्तु ज्ञान छोड़ना अत्यंत क िन क्योंकि अति ज्ञान अहंकार का अंतिम आधार जो है
पं० रघुनाथ परमात्मा का सत्य स्वरूप और आत्मिक शाँति का रहस्य जान गये और अपनी बाकी जिन्दगी परहित में व्यतीत करने लगे ।