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अन्त्येष्टि संस्कार~Funeral Rites of the Hindus

 

गरुड पुराण प्रेतखण्ड २.६ तथा १५.६ के अनुसार आतुर या आसन्न – मृत्यु मनुष्य को शय्या से उतार कर गोमय से लिप्त तथा तिल व दर्भ या कुशा से आच्छादित भूमि पर लिटा दिया जाता है। इसका कारण यह बताया गया है कि गोमय से लीप देने पर भूमि की योनि का निर्माण हो जाता है तथा लिप्त स्थान पर तिल व दर्भ का आच्छादन करने से वह भूमि ऋतुमती बन जाती है। आतुर को भूमि की इस योनि में स्थापित कर दिया जाता है जिससे वह भूमि के गर्भ में स्थापित होकर वर्धन कर सके। आतुर के मुख में पांच रत्न धारण कराये जाते हैं। इसका कारण यह बताया गया है कि जब पुष्प का नाश हो गया हो तो फिर गर्भ धारण कैसे हो सकता है। मुख में पांच रत्न धारण कराने से जीव का प्ररोहण होता है। भूमि को गोमय से लीप देने तथा इस प्रकार आतुर के लिए योनि या गर्भ के निर्माण करने के कथन को गम्भीरतापूर्वक समझने की आवश्यकता है। गौ का यह गुण होता है कि वह सूर्य की किरणों का अधिकतम शोषण करने में समर्थ होती है तथा अवशोषित शक्ति का वह उपयोग करने में समर्थ होती है। हमारी अपनी देह ही वह भूमि हो सकती है जिसका गोमय से लेपन करना है तथा जिसमें आत्मा या जीव को प्ररोहण में समर्थ बनाना है। गोमय से देह का लेपन कैसे किया जा सकता है, इस प्रश्न का हल अन्त्येष्टि क्रिया के अन्य कृत्यों के आधार पर होता है। ब्राह्मण ग्रन्थों ( शतपथ ब्राह्मण १२.५.२.७ व जैमिनीय ब्राह्मण १.४८) में अग्निहोत्र करने वाले को दीर्घसत्री की संज्ञा दी गई है। यदि इस दीर्घसत्री की मृत्यु हो जाती है तो उसके अंगों पर अग्निहोत्र के पात्रों की स्थापना की जाती है। किस अंग पर कौन से पात्र की स्थापना की जानी है, इस विषय में ग्रन्थ – ग्रन्थ के अनुसार कुछ भेद हो सकता है । यह निम्नलिखित तालिका में दिया गया है।

तालिका – मृतक के विभिन्न अंगों पर स्थापित किए जाने वाले यज्ञपात्र

 

बौधायन गृह्य

सूत्र पितृमेध १.८.११

शतपथ ब्राह्मण

१२.५.२.७

जैमिनीय ब्राह्मण

१.४८

गरुड पुराण

१.१०७.३३

अन्त्येष्टि दीपिका पृ.६० व ६२

मुख

अग्निहोत्रहवणी

अग्निहोत्रहवणी

अग्निहोत्रहवणी

तण्डुल आज्य तिल

अग्निहोत्रहवणी

नासिका

स्रुवा

स्रुवौ

स्रुवौ

 

स्रुच - स्रुव

अक्षि

हिरण्यशकलौ अथवा

आज्यस्रुवौ

 

 

आज्यस्थाली

 

कर्ण

प्राशित्रहरण

प्राशित्रहरणे

प्राशित्रहरणे

प्रोक्षणी(श्रोत्र में)

 

ललाट

एककपाल

 

 

 

 

शिर

प्रणीताप्रणयन चमस

प्रणीताप्रणयन चमस

इळोपवहनं चमसं

 

 

दक्षिण  हस्त

जुहू

घृतपूर्ण जुहू

जुहू

कण्ड

जुहू

सव्य हस्त

उपभृत

उपभृत

उपभृत

उपभृत

उपभृत

उर

ध्रुवा

ध्रुवा

ध्रुवा

दृषदं

ध्रुवा

दक्षिण अंस

अरणी

 

 

 

 

दक्षिण कटि

 

 

 

 

ऊर्ध्व उलूखल-मुसल

सव्य अंस

मेक्षणी

 

 

 

 

पृष्

पिष्टोद्वपनी

 

 

मुसलं

 

उदर

स्फ्य

पात्रीं समवत्तधानीं

पृषदाज्यवतीम्

पात्रीं संवर्तधानीम्

 

पात्रीं

पार्श्व

दारुपात्री

शूर्पे

मुसलं च शूर्पे च

उलूखल

शूर्प(सव्य), चमस(दक्षिण)

वंक्षण

सान्नायभिधानी, इडोपहवन

 

 

 

 

श्रोणी

सान्नाय्यकुम्भ्यौ

 

 

 

 

पाद

अन्वाहार्यस्थाली, चरुस्थाली

 

उलूखलम्

 

शूर्प दक्षिणाग्रं, अधरारणि

ऊरु

अग्निहोत्रस्थाली, आज्यस्थाली

 

 

 

उलूखल-मुसल अधोमुख

अण्ड

उलूखल - मुसल

वृषास्वौ(उत्तर – अधर

अरणी)

उलूखल – मुसलं च

 

दृषदुपले

अरणि

 

शिश्न

दृषद - उपल

शम्या

शम्या

शमी

 

उपस्थ

 

 

कृष्णाजिनम्

 

कृष्णाजिन

शिर

वृषारवं शम्यां च

 

 

 

 

दक्षिण पाणि

 

स्फ्य

 

 

 

अनुपृष्

 

 

स्फ्यं

 

 

सक्थिमध्य

 

 

 

 

शम्या दृषद-उपलं च

 

स्पष्ट है कि पुराणों ने इस झंझट में नहीं पडना चाहा है कि कौन से अंग पर कौन से पात्र को स्थापित किया जाए। उन्होंने सरल भाषा में कह दिया है कि भूमि का गोमय से लेपन किया जाए जिससे भूमि का वह भाग गर्भ को धारण करने वाली योनि बन सके। उपरोक्त तालिका में जिन यज्ञपात्रों की विभिन्न अंगों पर स्थापना की गई है, उनको समझने के लिए प्रत्येक यज्ञपात्र को समझना अनिवार्य होगा। एक उदाहरण के रूप में नासिका पर स्रुवौ की स्थापना को लेते हैं। यज्ञवराह के संदर्भ में सार्वत्रिक उल्लेख आता है कि यज्ञवराह की नासा आज्य है तथा तुण्ड स्रुवा है। इससे संकेत मिलता है कि नासिका में किसी प्रकार के आज्य का जनन सतत् रूप से हो रहा है जो तुण्ड रूपी स्रुवा में स्रवित होता है। हमारी नासिका में प्रायः श्लेष्मा का जनन होता है। जब यह श्लेष्मा किसी रोग से दूषित हो जाता है तो बाहर निकलने लगता है। नासिका क्षेत्र में स्थित स्टैम सैल मृत कोशिकाओं की लगातार पूर्ति करते रहते हैं। नासिका शरीर के उन अंगों में से एक है जहां स्टैम सैल अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं। लगता है कि पुराण इन स्टैम कोशिकाओं के आज्य में रूपान्तरित होने की बात कह रहे हैं। आज्य का एक अर्थ होता है – आज्योति, अर्थात् चारों ओर से प्रकाश। यज्ञवराह के संदर्भ में जिसे तुण्ड कहा गया है, उसकी तुलना हमारे मुख से की जा सकती है। हमारे मुख में लार का स्राव निरन्तर होता रहता है। यह आज्य और स्रुवा का एक निकृष्ट रूप हो सकता है। अथवा यह भी संभव है कि नासिका के इस आज्य की आहुति भ्रूमध्य के चक्षु में पडती हो।

      गरुड पुराण प्रेतखण्ड ४.१४० में मृतक की पुत्तलिका के अंगों में विभिन्न द्रव्यों की स्थापना निम्नलिखित रूप में की गई है –

शिर

नारिकेल

तालु

तुम्ब

मुख

पंचरत्न

जिह्वा

कदलीफल

अन्त्र

नालिक

घ्राण

बालुका

वसा

मृत्तिका

मनःशिला

हरिताल

रेतस

पारद

पुरीष

पित्तल

गात्र

मनःशिला

सन्धियां

तिलपक्व

मांस

यवपिष्ट

शोणित

मधु

केश

जटाजूट

त्वक्

मृगत्वक्

कर्ण      

तालपत्र

स्तन

गुञ्जिका

नासिका

शतपत्र

नाभि

कमल

वृषण

वृन्ताक(वैंगन)

लिंग

गृञ्जन

नाभि

घृत

कौपीन

त्रपु

स्तन

मौक्तिकं

मूर्द्धा

कुंकुम विलेपन

हृदय

परिधान पट्टसूत्र

भुजाद्वय

ऋद्धि - वृद्धि

चक्षुद्वय

कपर्दकं

दन्त

दाडिमीबीजानि

अंगुलि

चम्पकम्

नेत्रकोण

सिन्दूर

 

एकादशाह में पिण्डदान

जैसा कि गरुड पुराण के आधार पर ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, मृतक को भूमि के गर्भ में स्थापित किया जाता है। इसके पश्चात् दस दिन तक प्रेत के अंगों का निर्माण होता है, वैसे ही जैसे लोक में गर्भ के अंगों का निर्माण होता है। कौन से दिन किन अंगों का निर्माण होता है, यह निम्नलिखित तालिका में गरुड पुराण के आधार पर दिया गया है। साथ ही, अन्त्येष्टिदीपिका पुस्तक से उसकी तुलना की गई है – ऽ

 

अह

गरुड

२.५.३३

गरुड

२.१५.६९

अन्त्येष्टि

दीपिका पृ.९

विनियोग मन्त्र गरुड

२.४०

प्रथम

शिर

मूर्द्धा

 

आपो देवीर्मधुमती

 

द्वितीय

कर्ण – अक्षि-नासिका

ग्रीवा-स्कन्ध

चक्षु-श्रोत्र-नासिका

उपयाम गृहीतो ऽसि

(वा.सं. ७.४ इत्यादि)

तृतीय

गल-अंस-भुज-वक्ष

हृदय

कण् -मुख-बाहु-वक्ष

येना पावक चक्षुषा

(ऋ. १.५०.६)

चतुर्थ

नाभि-लिङ्ग-गुद

पृष्

नाभि-शिश्न-गुद

ये देवास(ऋ.१.१३९.११)

पञ्चम

जानु-जङ्घा-पादौ

नाभि

ऊरु-जानु-जङ्घा

समुद्रं गच्छ(वा.सं. ६.२१)

षष् म

सर्व मर्माणि

कटी

गुल्फ-पादाङ्गुलि

मर्मादि

अग्निर्ज्योति(वा.सं ३.९, सा.वे.

२.११८१)

सप्तम

नाडयः

गुह्य

अस्थि-मज्जा-शिरा

हिरण्यगर्भ(ऋ. १०.१२१.१)

अष्टम

दन्त लोमानि

ऊरु

नख-लोमादि

यमाय त्वा(वा.सं. ३७.११)

नवम

वीर्य

तालू - पादौ

वीर्योत्पत्ति

यज्जाग्रत्(अ. १६.७.१०)

दशम

तृप्तता, क्षुद् विपर्यय

क्षुधा

क्षुत्पिपासा निवृत्ति

याः फलिनी(ऋ. १०.९७.१२)

एकादश

 

 

 

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम

(ऋ. १.८९.८)

 ऐसा प्रतीत होता है कि मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले व्यक्ति को आसन्नमृत्यु वाले अपने सम्बन्धी से उसके अंगुष् मात्र चेतन तत्त्व का ग्रहण करना होता है और फिर उस अंगुष् मात्र पुरुष को इन्द्रियां प्रदान करके विकसित करना होता है। यहां यह प्रश्न उ ता है कि मृत्यु के पश्चात् तो प्राणी का तुरन्त दूसरा जन्म हो जाता है। फिर उसके अंगुष् मात्र शरीर के बचे रहने का क्या औचित्य है? इसका उत्तर यह हो सकता है कि मरणासन्न व्यक्ति के अंगुष् मात्र शरीर का ग्रहण करके उसके तुरन्त पुनर्जन्म ग्रहण करने में व्यवधान उत्पन्न किया जाता है। यदि तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है तो नवीन जन्म में पहले जन्म में संचित ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में ही रह पाएगा, चेतन स्तर पर उसकी कोई स्मृति शेष नहीं रह जाएगी। यदि अंगुष् मात्र चेतन तत्त्व का परिष्कार कर दिया जाता है तो मृतक पुरुष अपने अर्जित ज्ञान सहित नवीन जन्म ग्रहण करेगा।

अग्निहोत्री के अवयवों की अग्निहोत्र व दर्श-पूर्णमास के कृत्यों से तुलना(शतपथ ब्राह्मण ११.२.६.१) –

शिर

प्रणीताः प्रणयन

प्राण

इध्म

अनूक

सामिधेन्यः

मन-वाक्

आघारौ, सरस्वांश्च सरस्वती च

मुख

प्रथम प्रयाजः

दक्षिणा नासिका

द्वितीय प्रयाजः

सव्या नासिका

तृतीयः प्रयाजः

दक्षिण कर्णः

चतुर्थः प्रयाजः

सव्यः कर्णः

पंचमः प्रयाजः

चक्षुषी

आज्यभागौ

दक्षिण अर्द्ध

आग्नेयः पुरोडाशः

हृदय

उपांशु याजः

उत्तर अर्द्ध

अग्नीषोमीय पुरोडाशः

अन्तरांसम्

स्विष्टकृत्

उदर

इडा

अवांचः त्रयः प्राणाः

त्रयो अनुयाजाः

बाहू

सूक्तवाक् - शंयोर्वाक्

ऊरू - अष् ीवन्तौ

चत्वारः पत्नीसंयाजाः

पादौ

समिष्टयजुः

 

उपरोक्त तालिका में पादौ को समिष्टयजु कहा गया है। मृतक के प्रेतकर्म में प्रेत को उपानह दान दिया जाता है जिससे उसका आतिवाहिक शरीर आगे की यात्रा अश्वतरी युक्त यान में बै कर कर सके। पादों को पाप का स्थान कहा जा सकता है। इन पापों को समिष्टयजु कृत्य के माध्यम से हटाना होता है। तभी आतिवाहिक शरीर ऊपर की ओर आरोहण करने में समर्थ हो सकेगा। उपानह से क्या तात्पर्य हो सकता है, इसके विषय में अनुमान है कि अनियन्त्रित अग्नि को, चेतना को, ऊर्जा को क्रमशः नियन्त्रित करना, चिति बनाना, आधुनिक विज्ञान की भाषा में एण्ट्रांपी में कमी करना उपानह का कार्य है। लोक में उपानह का कार्य पृथिवी की अनियन्त्रित ऊष्मा से पादों की रक्षा करना होता है।

प्रेत शब्द से तात्पर्य

सोमयाग में दो प्रकार की गतियां होती हैं – प्रेति और एति। प्रेति से तात्पर्य होता है – इस पृथिवी के सर्वश्रेष् रस को लेकर ऊपर की ओर आरोहण करना और उसे सूर्य व चन्द्रमा में स्थापित करना। इसे रथन्तर कहा जाता है। प्रेति से उल्टा एति होता है जिसमें सूर्य व चन्द्रमा की ऊर्जा का पृथिवी में स्थापन किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में मृत्यु-पश्चात् प्रेत बनने की धारणा इसी प्रेति पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि जिस चेतना ने आरोहण आरम्भ किया है, वह एकदम सूर्य व चन्द्रमा तक पहुंच जाएगी। प्रेत संज्ञक चेतना में विभिन्न पाप या दोष विद्यमान होते हैं जिनके कारण वह ऊपर की ओर यात्रा नहीं कर सकती। इन दोषों का क्रमशः निवारण करना होता है। शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.१२ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि दोषों के निवारण को याज्ञिक भाषा में समिष्टयजु नाम दिया गया है। समिष्ट को सरल भाषा में समष्टि कहा जा सकता है। सोमयाग में अग्निचयन में समिष्टयजु का क्रम दीक्षा से आरम्भ होता है। शतपथ ब्राह्मण की भाषा में कहा गया है कि देवों ने यज्ञ करना आरम्भ किया तो असुर दौडे आए कि हमें भी यज्ञ में भाग दो(देवों के पास सत्य है जबकि असुरों के पास अनृत)। देवों ने अपना दीक्षणीय यज्ञ वहीं समाप्त कर दिया। दीक्षणीय के पश्चात् प्रेतों में प्रायणीय कृत्य का आरम्भ किया गया। इस कृत्य में शंयुवाक् तक पहुंचा जा सका था कि फिर असुर अपना भाग मांगने आ गए। फिर यज्ञ को यहीं समाप्त कर दिया गया। फिर प्रेतों में क्रीत सोम को अतिथि रूप में प्रतिस्थापित करने का कृत्य आरम्भ किया। इस याग में इडा का उपाह्वान कर लिया गया था। इस यज्ञ को यहीं समाप्त कर दिया गया। फिर प्रेतों में उपसद इष्टि का आरम्भ किया गया। इसमें केवल तीन सामिधेनियों का यजन किया गया था, न तो प्रयाज न अनुयाज का । इसे भी समाप्त करना पडा। फिर उपवसथ में अग्नीषोमीय पशु का आलभन किया गया। इस यज्ञ में समिष्टयजुओं का आह्वान नहीं किया गया था। यज्ञ को समाप्त कर देना पडा। फिर प्रेतों में प्रातःसवन का अनुष् ान किया गया, फिर प्रेतों में माध्यन्दिन सवन का, फिर प्रेतों में सवनीय पशु का। इसके पश्चात् जब प्रेतों में तृतीय सवन का समस्थापन किया गया,  तब उसके द्वारा सारे सत्य को प्राप्त कर लिया गया। इससे असुर पराजित हो गए। इस आख्यान से संकेत मिलता है कि शव दाह कर्म अग्निहोत्र के अन्तर्गत आता है जबकि शव दाह के पश्चात् के कृत्य सोमयाग के अन्तर्गत आते हैं। अब यह भी समझना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि शव का दाह करने वाला अग्नि का प्रज्वलन कैसे करता है। संभावना यह है कि अग्निहोत्री उत्तरारणि व अधरारणि द्वारा अपने अन्दर की अग्नियों को प्रज्वलित करता है और फिर वह शव में अग्नियों का प्रज्वलन करता है। उत्तरारणि और अधरारणि हमारे श्वास – प्रश्वास तथा देह हो सकते हैं। इन अरणियों से सबसे पहले गार्हपत्य अग्नि का प्रज्वलन होता है। गार्हपत्य अग्नि को ज राग्नि के रूप में समझा जा सकता है। आधुनिक आयुर्विज्ञान के अनुसार जब हमें क्षुधा का अनुभव होता है तो उसका कारण यह होता है कि आन्त्रों के बाहरी आवरण में एक अम्ल का प्रादुर्भाव हो जाता है जो क्षुधा का अनुभव कराता है। यदि क्षुधा को शान्त न किया जाए तो यह संभव है कि यह हृदय के बाहरी आवरण को भी आत्मसात् कर ले। तब यह दक्षिणाग्नि का ज्वलन कहा जा सकता है। क्षुधा के विकास पर मुख पर भी तेज का आविर्भाव होता है, वैसे ही जैसे महापुरुषों के मुखाकृति पर आभामण्डल प्रदर्शित किया जाता है। इसे आहवनीय अग्नि का नाम दिया जा सकता है। इतना अनुभव कर लेने के पश्चात् यह सोचना होगा कि मृतक के शरीर में अग्नि का प्रवेश कैसे कराया जा सकता है। कहा गया है कि सबसे पहले मुख पर अग्नि दे और फिर प्रदक्षिणा क्रम में सब अंगों में अग्नि दे। जो अग्नि पहले प्रदीप्त हो जाए, उसी से यह अनुमान लगाया जाता है कि मृतक किस लोक को गया है।

 

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