समस्त मानव समाज के लिए धर्म एक ही है। वास्तव में अपने अंतर्मन में प्रभु का दिव्य दर्शन करना ही धर्म है। तत्पश्चात उसी दर्शन को निरंतर ध्यान को आधार बनाकर एकत्व भाव से जीवन यापन करना असली धर्म है।सदगुरु,सत्संग व ब्रह्मविचारकी प्राप्ति अति दुर्लभ है। यह जिसे मिल जाए उससे ज्यादा भाग्यशाली कोई नहीं। गुरु ही जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से मुक्त करता है। यदि समस्त प्राणियों का आचरण महान और व्यवहार सात्विक एवं सद्भावनायुक्तहो तो संसार में सुख और शांति ही नजर आएगी। मनुष्य के संस्कार, उसका अर्थ चेतन मन ही उसके विचार और व्यवहार का प्रवर्तक होता है। वही उसकी दृष्टि तामसिक, राजसिक या सात्विक बनाता है। परमात्मा असीम और कण-कण में समाया हुआ है। आत्मा जब अपने मूल परमात्मा से मिल जाती है तो तब ही मुक्ति संभव होती है।