रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कलियुग की व्याख्या बहुत ही आसान रुप में की है।
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥
जिसका अर्थ है :- सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलयुग में जीव केवल प्रभु के नाम से प्राप्त कर लेते हैं।
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग सिर्फ हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥
जिसका अर्थ है :- सत्ययुग में वैसे तो सभी योगी और विज्ञानी होते हैं। श्री हरि की भक्ति और ध्यान करके सभी प्राणी भवसागर से पार हो जाते हैं। त्रेता युग में मनुष्य विभिन्न हवन, यज्ञ इत्यादि करते हैं और अपने सभी कर्मों को भगवान श्री हरी को समर्पित करके भवसागर तर जाते हैं।
द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की सेवा, आराधना करके मानव संसार से मुक्ति पाते हैं, यहाँ पर दूसरा और कोई समाधान नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गाथाओं का गुणगान करने मात्र से ही जीव भवसागर से मुक्ति पा जाते हैं।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥
जिसका अर्थ है :- कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ही ज्ञान है। यहाँ पर श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतः सभी आशाएं और विश्वास छोड़कर जो श्री राम जी का भजन करता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है।
वही जीव भवसागर से पार उतर जाता है, इसमें कोई भी आशंका नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग की यह एक पवित्र महिमा है यह है कि यहाँ मानसिक पुण्य कर्म तो होते हैं, पर मानसिक पाप कर्म नहीं होते है।
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
जिसका अर्थ है :- यदि व्यक्ति स्वयं पर श्रद्धा और विश्वास करे, तो कलियुग के जैसा दूसरा बेहतरीन युग कोई नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री राम जी के पावन गुणसमूहों का गान करके मानव बिना किसी बहुत कठिन मेहनत किये।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥
जिसका अर्थ है :- धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) तो सभी को ज्ञात है, जिनमें से कलियुग में एक (दान रूपी) चरण ही सबसे अधिक महत्त्व पूर्ण है। जिसको किसी भी प्रकार से देने पर दान समृद्धि ही प्रदान करता है।
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥
जिसका अर्थ है :- श्री रामजी की माया के वशीभूत होकर सभी जीवों के हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का खुश हो जाना, यह सब सत्ययुग का प्रभाव जानें॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥
जिसका अर्थ है :- सत्त्वगुण ज्यादा हो, कुछ रजोगुण भी हो, कार्यो में प्रीति हो, सभी प्रकार से सुख हो, यह त्रेता युग का धर्म है। इसमें रजोगुण की प्रधानता हो, सत्त्वगुण बहुत ही कम हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष हो और भय भी हो, यही द्वापर का धर्म है॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥
जिसका अर्थ है :- तमोगुण बहुत अधिक हो, रजोगुण थोड़ा सा हो, चहुँ ओर वैर-विरोध व्याप्त हो, यह कलियुग का प्रभाव है। ज्ञानी पंडित लोगों ने विभिन्न युगों के धर्म को मन में जानकर, अधर्म का त्याग करके धर्म में प्रीति-अनुराग करते हैं।
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥
जिसका अर्थ है :- जिनका श्री रघुनाथ जी के चरणों में अथाह अनुराग है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बहुत ही विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया व्यापत नहीं कर पाती है।
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥
जिसका अर्थ है :- श्री हरि की माया के द्वारा रचित दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते है। मन में इस प्रकार का विचार करके, अपनी सभी इच्छाओं का त्याग कर (निष्काम भाव से) श्री राम जी का भजन करना चाहिए।