एक बार मेरा हनुमान जी के मंदिर में जाना हुआ, जहाँ पर मैंने एक पंडित जी को देखा, जो एक जनेऊ हनुमान जी के लिए लेकर आये थे। संयोगवश लाइन में मुझे उनके ठीक पीछे खड़ा होना था, मैंने सुना वो पुजारी जी से कह रहे थे कि वह खुद का काता (बनाया) हुआ जनेऊ लाये है और हनुमान जी को पहनाना चाहते हैं। पुजारी जी उनका दिया हुआ जनेऊ तो ले लिया परंतु हनुमान जी को चढ़ाया नहीं। जब उन ब्राह्मण देव ने पुन विनती की तो पुजारी जी बोले, यह तो हनुमान जी का श्रृंगार है जिसके लिए बड़े पुजारी (महन्थ) जी से अनुमति लेनी होगी, आप कुछ समय प्रतीक्षा करें, वो आते ही होंगे। मैं पीछे खड़ा उन लोगों की बातें बड़े ही ध्यान से सुन रहा था, जिज्ञासावश मैं भी वहीँ पर रूककर महन्थ जी के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
फिर कुछ समय पश्चात जब मंदिर के महात्मा और बड़े पुजारी जी आए तो पुजारी जी ने उनको, उस ब्राह्मण की विनती के बारे में सारा वृतांत सुनाया। महात्मा जी ने ब्राह्मण देव की ओर देख कर कहा कि देखिए हनुमान जी ने जनेऊ तो पहले से ही धारण किया हुआ है और चूँकि यह कोई फूलमाला नहीं है जो कि एक साथ कई पहना दी जाए। आप चाहें तो यह जनेऊ हनुमान जी को चढ़ाकर प्रसाद रूप में ले लीजिए।
इस पर उस ब्राह्मण ने बहुत विनयपूर्वक कहा कि मैंने देखा है कि प्रभु ने पहले से ही जनेऊ धारण कर रखा है लेकिन कल रात को चन्द्रग्रहण हुआ था और वैदिक नियमों के अनुसार प्रत्येक जनेऊ धारण करने वाले को ग्रहणकाल के बाद पुराना जनेऊ बदलकर नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए। ऐसा जानकार सुबह सुबह मैं हनुमान जी की सेवा में खुद बनाया यह जनेऊ ले आया था, प्रभु को यह अति प्रिय भी है। मैंने हनुमान चालीसा में भी पढ़ा है कि - "हाथ बज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूज जनेऊ साजे"।
अब महात्मा जी थोड़ी सोचनीय मुद्रा में बोले कि हम लोग बाजार का जनेऊ नहीं लेते है, हनुमान जी के लिए शुद्ध जनेऊ बनवाते हैं। ऐसे में आपके जनेऊ की क्या शुद्धता है। इस पर वह पंडित जी बोले कि ये कच्चे सूत से बना हुआ है, इसकी लम्बाई 96 चउवा (अंगुल) है। पहले तीन धागे को तकली पर चढ़ाने के बाद तकली की मदद से नौ धागे तेहरे गये हैं। इस प्रकार 27 धागे का एक त्रिसुत है जो कि पूरा एक ही सुता है कहीं से भी खंडित नहीं है। इसमें प्रवर तथा गोत्रानुसार प्रवर बन्धन भी है तथा आखरी में ब्रह्मगांठ लगा कर इसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाकर हल्दी से रंगा गया है और यह सब मैंने स्वयं अपने हाथों से गायत्री मंत्र का जाप करते हुए किया है।
उन ब्राह्मण देव की जनेऊ बनाने की इस विधि को जानकर मैं तो स्तब्ध रह गया। मन ही मन उनको नमस्कार किया, मैंने देखा कि अब महात्मा जी ने अब पंडित जी से संस्कृत भाषा में कुछ प्रश्न किया, उन लोगों का प्रश्न - उत्तर तो मेरी समझ में नहीं आया किन्तु महात्मा जी के भाव भंगिमा को देख कर लग रहा था कि वे पंडित जी के उत्तर पूर्णतया सन्तुष्ट हैं। अब वे पंडित जी को अपने साथ लेकर हनुमान जी के पास पहुँचे जहाँ मन्त्रोच्चारण कर महात्मा जी व अन्य तीन पुजारियों के सहयोग से हनुमान जी को ब्राह्मण देव ने जनेऊ पहनाया। तथा हनुमान जी का पुराना जनेऊ उतार कर उन्होंने बहते पानी में विसर्जन करने के लिए अपने पास रख लिया।
वैसे तो मै मंदिर तो कई बार आता हूँ उस दिन की इस घटना ने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ दी। मैंने विचार किया कि मैं भी तो एक ब्राह्मण हूं और नियम के अनुसार मुझे भी जनेऊ बदल लेना चाहिए, इस भाव के साथ मै उन पंडित जी के पीछे-पीछे मंदिर से बाहर आ गया। फिर उन्हें रोककर नमस्कार करने के बाद अपना परिचय दिया और कहा कि मुझे भी एक जोड़ी शुद्ध जनेऊ की आवश्यकता है। तो पंडित जी ने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा कि इसे तो वो केवल हनुमान जी के लिए ही लेकर आये थे। यदि आप अधिक इच्छुक हो तो मेरे घर पर आकर कभी भी ले लीजियेगा मैं अपने घर पर जनेऊ बनाकर रखता हूँ। जो लोग पहले से जानते हैं वो कभी भी आकर ले जाते हैं। मैं उनसे उनके घर का पता लेकर उन्हें नमस्कार करके वापस चला आया।
शाम को जब मै उनके घर पहुंचा तो देखा कि वह अपने घर में एक तखत पर बैठे हुए किसी व्यक्ति से कुछ बात कर रहे हैं। फिर गाड़ी से उतरकर मैं जैसे ही उनके पास में पहुंचा तो मुझे देखते ही वो खड़े हो गए, और मुझसे बैठने की विनय की। मैं बैठ गया और बातों बातों में पता चला कि वह दूसरा व्यक्ति भी वहीँ पास ही में रहने वाला ब्राह्मण है तथा उनके पास जनेऊ लेने के लिए ही आया है। पंडित जी फिर अपने घर के अन्दर एक कमरे में चले गए। इसी मध्य, उनकी दो बेटियाँ जिनकी आयु लगभग 12 वर्ष व 8 वर्ष की रही होंगी। एक अपने हाथ में एक लोटा जल तथा दूसरी अपने हाथ में एक कटोरी में गुड़ तथा दो गिलास लेकर आयी। उन्होंने हम लोगों के सामने बड़े आदर भाव से गुड़ व जल रखा। मेरे पास बैठे व्यक्ति ने दोनों गिलास में जल डाला, फिर गुड़ का एक टुकड़ा उठा कर खाया और पानी पी लिया तथा गुड़ की कटोरी को मेरी ओर खिसका दिया, किन्तु मैंने वह पानी नहीं पिया।
तभी पंडित जी अपने कमरे से बाहर आए और एक जोड़ी जनेऊ उस व्यक्ति को दे दिया, जो व्यक्ति पहले से वहां बैठा हुआ था। उसने वह जनेऊ लिया और 21 रुपए पंडित जी को देकर चला गया। मैं अभी वहीं पर रुका हुआ था क्योंकि इन ब्राह्मण देव के विषय में और अधिक जानने की जिज्ञासा मेरे मन में थी। बातों ही बातों ज्ञात हुआ कि उन्होंने संस्कृत विषय से स्नातक किया हुआ हैं। इस भौतिकवादी युग में नौकरी न मिलने और जमा पूँजी ना होने के कारण कोई व्यवसाय भी वो नहीं कर पाये। घर में वृद्ध मां, पत्नी, दो बेटियाँ तथा एक छोटा बेटा, एक गाय के भरण पोषण की जिम्मेदारी उन पर आ गयी। वे पंडित जी वृद्ध मां और गौ-माता की सच्चे मन से सेवा करते हैं। गौ माता के दूध से थोड़ी सी आय हो जाती है और जनेऊ बनाना तो उन्होंने अपने पिता व दादा जी से सीखा है। यह भी उनके जीवन यापन में सहायक सिद्ध होता है।
इस बीच जब उनकी बड़ी बेटी पानी का लोटा वापस ले जाने के लिए आई मगर अभी भी मेरे गिलास में पानी भरा हुआ था। फिर उसने मेरी ओर देखा, जिससे मुझे आभास हुआ कि जैसे उसकी आँखें मुझसे जानना चाह रही हों कि मैंने पानी क्यों नहीं पिया? मैंने अपनी नजरें उधर से हटायी तो, वह पानी का लोटा और गिलास वहीं पर छोड़ कर चली गयी। शायद उसको आशा थी कि मैं बाद में पानी पी लूंगा।
अब तक बिताये कुछ समय में मैं इस परिवार के बारे में काफी हद तक जान गया था। सारे घटनाक्रम के बाद मेरे मन में उनके प्रति दया के भाव आ गए थे। खैर पंडित जी ने मुझे एक जोड़ी जनेऊ दिया तथा कागज पर एक मंत्र भी लिख करके दिया और बताया कि जनेऊ धारण करते समय इस मंत्र का उच्चारण अवश्य करूं।
मैंने काफी सोच समझ कर 500 रुपए का नोट ब्राह्मण देव को देने के लिए उनकी ओर बढ़ाया तथा जेब और पर्स में एक का सिक्का ढून्ढने लगा। मै जानता था कि 500 रुपए एक जोड़ी जनेऊ के लिए बहुत अधिक कीमत है लेकिन मैंने समझा कि इसी बहाने से इन लोगो कुछ सहायता हो जाएगी। वह ब्राह्मण देव हाथ जोड़ कर मुझसे बोले कि सर 500 सौ का फुटकर तो मेरे पास में नहीं है, मैंने कहा अरे फुटकर की कोई आवश्यकता नहीं है आप कृपया सारे ही रख लीजिए। तो उन्होंने कहा नहीं मुझको बस मेरी मेहनत के 21 रुपए दे दीजिए। उनका ये भाव मुझे बहुत पसंद आया कि गरीब होने के बाद भी वो बिलकुल भी लालची नहीं हैं।
इसलिए मैंने भी उनको पांच सौ रूपये ही देने की ठान ली और मैंने कहा कि फुटकर तो मेरे पास भी नहीं हैं, पंडित जी आप संकोच मत करिए पूरा रख लीजिए आपके काम आ जायेंगे। वह बोले अरे नहीं मैं कोई संकोच नहीं कर रहा, आप इन्हे वापस रख लीजिये जब कभी आपसे बाद में मुलाकात होगी तब 21रु. दे देना।
इस ब्राह्मण के इतने शुद्ध और सरल भाव मेरी आँखों को नम कर गए। उन्होंने बताया कि शुद्ध जनेऊ की एक जोड़ी पर उनकी लगभग 13 से 14 रुपए की लागत आती है। बाकी 7-8 रुपए वह अपनी मेहनत का जोड़कर 21 रुपए वह लोगो से लेते हैं। कई बार एक का सिक्का न होने की बात कह कर कोई उनको बीस रुपए ही दे पाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसी समस्या थी, क्योंकि मेरे पास 21 रुपए फुटकर नहीं थे, उनके बहुत आग्रह पर मैंने पांच सौ का वह नोट वापस रखा। फिर सौ रुपए का एक नोट उनको बड़ी ही विनयपूर्वक उनको दिया। इस बार वह मेरा आग्रह नहीं टाल सके और 100 रुपए रख लिए। फिर मुझे एक मिनट रुकने के लिए बोलकर वह घर के अन्दर गए तथा बाहर आकर और चार जोड़ी जनेऊ मुझे देते हुए बोले... मैंने आपकी बात मानकर सौ रु. रख लिए हैं अब मेरी बात को मान कर आप भी यह चार जोड़ी जनेऊ और रख लीजिए ताकी मेरे मन पर किसी प्रकार का कोई भी भार ना रहे।
मैंने ह्रदय से उनके स्वाभिमान को प्रणाम करते हुए उनसे पूछा कि इतने जनेऊ लेकर मैं क्या करूंगा, जिस पर वो बोले कि मकर संक्रांति, पितृ विसर्जन, चन्द्र और सूर्य ग्रहण, अथवा घर पर किसी हवन पूजन संकल्प, परिवार में शिशु जन्म के सूतक आदि अवसरों पर जनेऊ बदलने का नियम होता है। साथ ही आप अपने सगे सम्बन्धियों, रिश्तेदारों व अपने ब्राह्मण मित्रों को उपहार भी दे सकते हैं जिससे हमारी भारतीय संस्कृति व परम्परा मजबूत हो, साथ ही यदि आप कभी मंदिर जाएं तो विशेषतः गणेश जी, शंकर जी व हनुमान जी को जनेऊ जरूर चढ़ाएं...
उनकी सारी बातें सुनकर वो पांचों जोड़ी जनेऊ मैंने अपने पास में रख लिये और खडे होकर, वापसी के लिए विदा होने का अनुरोध किया, तो उन्होंने कहा कि आप हमारे यहाँ पर अतिथि हैं पहली बार हमारे घर आए हैं हम आपको ऐसे खाली हाथ कैसे जाने दे सकते हैं। इतना कह करके उन्होंने अपनी बिटिया को पुकारा, जिसके बाहर आने पर ब्राह्मण देव ने उसको इशारा करते हुए कुछ कहा तो वह जल्दी से अन्दर गयी और एक बड़ा सा डंडा लेकर बाहर आयी। डंडा देखकर मै एक पल तो हैरान रह गया कि मेरी कैसी विदायी होने जा रही है।
अब उस डंडे को ब्राह्मण देव ने अपने हाथों में लेकर मुझे मुस्कुराकर देखा... पलटकर मैंने भी थोड़ा मुस्कराने का प्रयास किया। वह डंडा लेकर थोड़ा आगे बढ़े तो मैं भी थोड़ा पीछे हट गया। उनकी बिटिया जो उनके पीछे पीछे चल रह थी। मैंने देखा कि दरवाजे की दूसरी तरफ दो पपीते के पेड़ लगे थे। डंडे की सहायता से पंडित जी ने एक पका हुआ पपीता तोड़ा। फिर उनकी बिटिया वह पपीता उठा कर अन्दर चली गयी और पानी से धोकर एक कागज में लपेट कर मेरे पास ले आयी। अपने नन्हें नन्हे हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिया। उसका निश्छल अपनापन देख मेरी आँखें भर आईं।
मैं अपनी भीग चुकी आंखों को उससे छिपाकर दूसरी ओर देखने का प्रयास करने लगा। तभी मेरी नजर पानी के उस लोटे और गिलास पर पड़ी जो अब भी वहीं पर रखा हुआ था। इस छोटी सी बच्ची का अपनापन देखकर मुझे अपने पानी न पीने पर ग्लानि महसूस हुई। मैंने तभी एक टुकड़ा गुड़ उठाकर मुँह में रखा और पूरा गिलास पानी एक ही बार में पी लिया। फिर उस छोटी बिटिया से पूछा कि क्या एक गिलास पानी और मिल सकता है... वह नन्ही परी फुदकती हुई लोटा उठाकर ले गयी और पानी भरके ले आयी, फिर उस पानी को मेरे गिलास में डालने लगी। उसके होंठों पर बिखर रही सुन्दर मुस्काहट जैसे मेरा धन्यवाद करने का प्रयास कर रही थी। लेकिन मैं अपनी भीगी नजरें उससे छुपाने का प्रयास कर रहा था। तब पानी का गिलास उठाकर, अपनी गर्दन को ऊंची करके मैं उस अमृत को पीने लगा... पर मैं अपराधबोध से दबा जा रहा था।
अब बिना किसी से कुछ बोले वह पपीता गाड़ी की दूसरी सीट पर रखा, और घर के लिए चल दिया, घर पहुंचने पर हाथ में पपीता देखकर मेरी पत्नी ने जब मुझसे पूछा कि यह कहां से लेकर आये हो... तो मैं उसको बस इतना ही कह सका कि एक ब्राह्मण देव के घर पर गया था तो उन्होंने खाली हाथ नहीं लौटने दिया।