तीसरी मंजिल पर टॉयलेट और उसमें भी नल नहीं हो, पानी लेने के लिए नीचे के नल का प्रयोग करना, जिससे पानी भरकर ले जाना पड़ता था। माताजी तो थीं ही पुराने ख्यालातों की जिनका मानना था कि बहू तो होती ही है काम काज करने के लिए। इसलिए वो खुद के लिए भी उसी को ही पानी लाने के लिए भेजती ऐसे में ये स्थिति एक पति के लिए किसी बड़े धार्मिक संकट से बिलकुल कम नहीं थी। एक ओर मर्यादा का पालन करना तथा दूसरी ओर एक कर्तव्य का निर्वहन करना। स्थिति तब और भी विकट हो गयी जब पत्नी गर्भवती हो गयी, बेचारे पति से यह देखा नहीं जाए कि पत्नी इस स्थिति में भी पानी का मटका भरके सिर पर उठाये सीढ़ियां चढ़े।
पतिदेव अब कैसे भी करके पत्नी से माता जी का यह पानी मँगवाना बंद कराना चाहते थे। लेकिन यह काम कराना इतना भी सरल नहीं था। एक ओर उनकी पूजनीय माता जी थी तथा दूसरी तरफ उनके लिए बच्चे के निर्माण में संलग्न उनकी सहधर्मिणी। माता जी को कुछ कहना गरिमा का टूट जाना होता, पत्नी को ये करते देखते रहना अपने कर्तव्य की विमुखता हालांकि इसका एक सरल समाधान था कि वह खुद पानी ले आये लेकिन उनका ये करना भी तो माँ को खराब लगता। इस गंभीर मसले का आखिरकार उन्होने ऐसा हल ढूंढ निकाला कि न तो माताजी गुस्सा हुई और न पत्नी को परेशानी।
अपने स्नान का समय पति ने वह निश्चित कर लिया जब पत्नी जल लेने के लिए नीचे जाती थी। पत्नी द्वारा मटका भरने पर वह चुपचाप उसे ऊठा लेते, पत्नी के ऐसा करने के लिए मना करने पर, वे उसको समझा कर शांत भी करा देते थे। आखिरकार पत्नी अपने स्वामी की भावना को समझ गई और बिना कुछ कहे उनके पीछे-पीछे सीढ़ियां चढती चली जाती। जब दोनों तीसरी मंजिल पर पहुंच जाते और एक दो सीढ़ियाँ ही चढ़नी रह जाती, तभी वह मटका पत्नी के सिर पर रख दिया करते और खुद नहाने के लिए वापस नीचे आ जाया करते थे।
यह जानकर कोई भी हैरान हो जाएगा कि यह समझदार पति कोई और नहीं बल्कि भारत रत्न और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी थे। जिन्होंने अपने जीवन में न केवल राष्ट्रीय दायित्वों को पूरी निष्ठा के साथ निभाया बल्कि पारिवारिक सामंजस्य में भी अपनी कुशल बौद्धिकता का परिचय देने वाले अनेकों उदहारण प्रस्तुत किये। अपनी पत्नी के स्वास्थ्य तथा सुख का ध्यान रखने के साथ वो अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों का भी हमेशा निर्वहन करते थे। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति शास्त्री जी सदैव ईमानदार बने रहे। यह उनकी बौद्धिक सूझबूझ का ही परिचायक था कि उन्होने आजीवन कर्तव्यों का निर्वाह भी किया और कभी मर्यादाओं का भी उल्लंघन नही किया। साथ ही ललिता जी ने भी सदैव उनकी देश सेवा की भावना को समझते हुए हमेशा उनको पूरा सहयोग दिया।