बांके बिहारी कृष्ण का ही एक अवतार हैं।
श्री हरिदास स्वामी तानसेन के गुरु थे। हरिदास प्रभु श्री कृष्ण की खूब भक्ति किया करते थे। उनके विषय में कहा जाता है कि हरिदास, श्री राधा रानी की सहेली ललिता जी का ही अवतरण थे। बाल्यावस्था से ही स्वामी हरिदास जी भक्ति और धार्मिक कार्यो में बहुत रूचि लेते थे। हरिदास जी के गुरु स्वामी आशुधीर देव जी थे। श्री हरिदास जी ने केवल मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने गुरु से विरक़्त मार्ग पर जाने की अनुमति ले ली थी। जिसके बाद यमुना नदी के तट पास स्थित निकुंज में एकान्त स्थान पर रहकर हरिदास ने ध्यान करना आरम्भ कर दिया था।
भक्त हरिदास अब अपने आराध्य प्रभु श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे थे और अपनी मधुर वाणी में भजन गाकर कृष्णमय हो गए थे। कहा जाता हैं कि एक बार स्वामी हरिदास के अनुरोध पर ही श्रीकृष्ण और राधा रानी ने उनको दर्शन दिए थे। कृष्ण जब राधा के साथ प्रकट हुए तो उनके दिव्य तेज से बाकी श्रद्धालुओं भक्तों की आंखें बंद हो गईं थी। तब प्रभु राधे-कृष्ण से श्री हरिदास ने विनती की कि वह अपने इस स्वरूप को एक कर ले। क्योंकि दुनिया आप दोनों के इस दिव्य तेज को सह नहीं सकती है।
अपने प्रिय भक्त स्वामी हरिदास जी की विनय को स्वीकार करते हुए राधा-कृष्ण ने एक होकर श्यामल रंग की मूर्ति का रूप धर लिया। कृष्ण भगवान् का ये श्रीविग्रह स्वरुप धरती की गोद से लिया गया था।
यही कारण है कि श्री बांके बिहारी की मूर्ति का निर्माण नहीं किया गया था अपितु यह स्वामी श्री हरिदास के विनय पर अवतरित हुई थी। बांके बिहारी की ये मूर्ति काठ यानि लकड़ी से बनी है और इसमें किसी भी धातु का प्रयोग नहीं किया गया है।
बांके बिहारी मंदिर में प्रभु इसी प्रतिमा में विराजमान है। राधा कृष्ण के इस एकात्मक स्वरुप का दर्शन बाँके बिहारी जी की इस सूंदर छवि के बीच विध्यमान एक दिव्य प्रकाश पुंज के माध्यम से श्रद्धालु करते है। यह दिव्य प्रकाश पुंज बाँके बिहारी जी के इस स्वरुप में राधा तत्व का प्रतीक माना जाता है।
राधा कृष्ण के इस सूंदर स्वरुप को बांके बिहारी कहे जाने का मुख्य कारण यह है कि राधा-कृष्ण के एकीकृत रूप की ये श्याम वर्ण छवि है तीन स्थानो से थोड़ी टेढ़ी है। टेढ़ा यानि धुमा हुआ जिसका पर्यायवाची शब्द होता है बांका। तथा दूसरा शब्द बिहारी है जिसका अर्थ होता है वह जो सदैव पूर्ण आनंद में रहे। इस प्रकार राधे कृष्ण के इस एकल दिव्य स्वरुप को बांके बिहारी कहा जाता है।
प्रारम्भ में प्रभु बांके बिहारी की यह प्रतिमा निधिवन में विध्यमान थी जिसकी सेवा स्वयं स्वामी श्री हरिदास जी किया करते थे। बाद में जब प्रभु का भव्य मंदिर बनाया गया तो उन्हें यहाँ पर स्थापित कर दिया गया।
सिर्फ शरद पूर्णिमा पर्व के दिन श्री बाँकेबिहारी जी मन्दिर में वंशी धारण करते हैं। श्रावण तीज के दिन झूले पर बैठकर झूला झूलते हैं और जन्माष्टमी के मंगल पर्व पर बिहारी जी की मंगल आरती की जाती हैं। अक्षय तृतीया के दिन ही प्रभु के पावन चरणों के दर्शन कराये जाते है।